Author Archives: अजय प्रताप सिंह
गुरु और शिष्य का संबंध बनता है – श्रद्धा व समर्पण से
ज्ञान के आकर्षण के कारण गुरु के प्रति तुम्हारे हृदय में आदर का भाव बनता है। महीने, दो महीने बाद संभव है, तुम्हें पता चले कि तुम्हारा गुरु तो इतना ज्ञानी सचमुच में नहीं है, जितना तुम समझते थे, तो तुम्हारा आदर कम हो जाएगा, आदर क्षीण हो जायेगा। अगर तुमने देखा कि तुम्हारा गुरु बड़ा तपस्वी है, योग करता है, प्राणायाम करता है और इसीलिए तुम्हारे चित्त में गुरु के प्रति आकर्षण पैदा हो गया तो तुम समझोगे कि तुम्हारा गुरु बड़ा ज्ञानी है। लेकिन महीने दो महीने बाद तुम्हें पता चले कि कोई खास तपस्या नहीं, कोई खास साधना नहीं है, गुरु शीर्षाशन करना ही नहीं जानता है। जिस योग और साधना के कारण गुरु के प्रति आदर था तुम्हारे चित्त में, वह आदर का भाव तुम्हारे भीतर से चला जायेगा।
इस तरह छोटे-मोटे जो आदर के भाव होते हैं उससे गुरु पैदा नहीं होता है तुम्हारे जीवन में। गुरु पैदा होता है – श्रद्धा से। श्रद्धा किसी कारण से पैदा नहीं होती है। जब हृदय का हृदय से मेल होता है तभी किसी के प्रति श्रद्धा अकारण पैदा होती है।
जब हृदय का संबंध गुरु से बन जाता है, जब आत्मा का संबंध गुरु से हो जाता है तब गुरु और शिष्य का संबंध शुरू हो जाता है। वह गुरु और शिष्य के बीच का संबंध होता है। शेष सारे संबंध कितने ही गहरे क्यों न हों, वे मन के और शरीर के होते हैं। बाप-बेटे का संबंध शरीर से ज्यादा गहरा संबंध नहीं है। तुम्हारे अस्तित्व के तीन तल हैं – शरीर का तल, मन का तल, और सबसे सूक्ष्म आत्मा का तल। ये संबंध तीन तल पर होते हैं।
दुनिया में सारे संबंध जैसे – बाप बेटे का संबंध, पति पत्नी का संबंध या भाई बहन का संबंध हो, शरीर से बनने वाले संबंध हैं। लेकिन तुम्हारे और गुरु के बीच का संबंध शरीर के तल का नहीं है, मन के तल का संबंध नहीं है। ये तो आत्मा का आत्मा से, हृदय का हृदय से उत्पन्न होने वाला संबंध है। तभी तो सबको छोड़कर उनके चरणों में समर्पण कर देते हो।
जो तुम बेटे के लिये नहीं कर सकते, भाई बहन के लिये नहीं कर सकते, वह सब तुम गुरु के लिये कर सकते हो। मैं उससे भी अद्भुत बात बताता हूँ कि जो माँ-बाप बेटे के लिये नहीं कर सकता है जो भाई बहन एक दूसरे के लिये नहीं कर सकते हैं, उससे भी कई गुणा अधिक, अनंत गुणा ज्यादा, क्षण-प्रतिक्षण गुरु शिष्य के प्रति करने के लिये तत्पर रहता है। गुरु चाहता है कि मेरे प्रिय शिष्य को सारी सम्पदा मिल जाय। वह बांटने के लिये, झोली भरने के लिये सदा तैयार रहता है। गुरु तो एड़ी चोटी एक कर देता है, पसीना बहा देता है कि मेरी सारी सम्पदा मेरे प्रिय शिष्य को मिल जाय। मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरे शिष्य को मिल जाय।
यही गुरु कि करुणा है, यही गुरु का गुरुत्व है और यही गुरु कि महिमा है। वह अपना सब कुछ चौबीस घण्टे अपने प्रिय शिष्य में उलेड़ने को तत्पर रहता है। इसलिए तुम्हें ठोकता पीटता है, संभालता है, सब कुछ करता है कि कैसे अपने को तुम्हारे भीतर उलेड़ दे? गुरु देता है तो छोटी-मोटी चीज नहीं देता है कि-
“गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान,
तीन लोक की सम्पदा, सो दे दीन्ही दान।”
गुरु के समान देने वाला है ही नहीं। ब्रम्हा, विष्णु, महेश भगवान भी नहीं दे सकते है। कोई नहीं दे सकता। केवल स्वामी सुदर्शनाचार्य दे सकते हैं। आत्मा दे दी, अपने प्राण दे दिये, और कहा – बेटे अपना शरीर भी तुम्हें दे देता हूँ। अब और देने को क्या बचता है? वे तो साक्षात परमात्मा हैं। यह मत सोचना कि गुरु तुम्हारे जैसा है, क्योंकि उसे भी पसीना है, उसे भी बुखार आता है, उसे भी सर्दी-जुकाम होता है और उसे भी भूख-प्यास लगती है। फिर तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं बात आ ही जाती है कि गुरु को ब्रम्हा, विष्णु, महेश मानना मूर्खता की बातें हैं। क्योंकि वह भी तुम्हारे जैसा चलता है, तुम्हारे जैसे पहनता है और तुम्हारे जैसा बोलता है। लेकिन तुम्हारे मन में गुरु को परमात्मा स्वीकार करने का भाव बन गया तो फिर सब कुछ सारा वेद, सारा पुराण, सारी बाइबिल, सारी कुरान सब तुम्हारे भीतर उतार जायेगी।
दर्शन करने की कला
जो असाधारण है, जो परम है, जो सारे अध्यात्म का प्राण है, उस सन्देश को शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। उसका अनुभव तभी किया जा सकता है जब आपके भीतर मौन रहने का अभ्यास पैदा हो जाय, मौन रहने की कला आपके भीतर आ जाय, मौन होना आपको आ जाय। धर्म के नाम पर मैं सिर्फ मौन का संगीत आपके भीतर पैदा करना चाहता हूँ। शब्दों की बड़ बड़ से कोई काम होने वाला नहीं है। जब तक मौन का संगीत आपके भीतर पैदा न हो, जब तक चौबीस घंटे अधिक से अधिक मौन रहने का आनंद आपको न मिल जाय, तब तक वास्तव में धर्म की अध्यात्म की, आनंद की प्रतीति आपको संभव नहीं हो सकती है। और इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि हर प्रकार कि बड़ बड़ से मुक्त होना ही धर्म का प्राण है। थोड़ी देर को आप अकेले हो जाओ, थोड़ी देर को आप ऐसे हो जाओ जैसे आप इस संसार में होकर भी इस संसार से मुक्त हो गए, आप सिर्फ स्वयं में हो, स्वयं के अलावा जैसे इस पृथ्वी पर कोई और है ही नहीं। ऐसा क्या कभी अनुभव किया जा सकता है?
मैं चाहता हूँ कि 5 मिनट के लिए आप अपनी आँखें बंद कर लें और ऐसे हो जायं जैसे कि आप दुनिया में हैं ही नहीं। साड़ी दुनिया आप के लिए जैसे समाप्त हो गयी है और आप अकेले हैं, अपने में हैं। स्वस्थ हैं। थोड़ी देर के लिए स्वस्थ हो जाइये। स्वस्थ का है स्व + अस्थ। यानि अपने में स्थित हो जाइये। जो अपने में स्थित हो सके, जो अपने भीतर स्थित हो सके वही सच्चे अर्थों में स्वस्थ है, बाकी सारे लोग अस्वस्थ हैं।
आप अपनी भौतिक संसार की तमाम आकाँक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं। संसार के बहुत से शारीरिक और मानसिक कष्टों से मुक्त होना चाहते हैं। जीवन की आकांक्षाएं हैं उनको पूरा करना चाहते हैं और शायद सद्गुरु के पास पहुँचने का एक सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी होता है की आप अपने जीवन की कामनाओं को पूरा कर सकें और सद्गुरु उसमें सहयोगी हो सकें। निश्चय ही सद्गुरु उसमें सहयोगी होगा। निश्चय ही सद्गुरु के प्रति आपका प्रेम, सद्गुरु के प्रति आपकी श्रद्धा, 99% आपकी आकांक्षा को पूरा करना में सक्षम है। लेकिन निर्भर करता है कि अपका प्रेम, आपकी श्रद्धा, आपका समर्पण कितना है। पूरी-पूरी श्रद्धा हो, पूरा-पूरा समर्पण हो तो किसी अन्य चीज की जरूरत नहीं पड़ती है, किसी अन्य उपाय की जरूरत नहीं पड़ती है, किसी अन्य उपचार की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन पूरा-पूरा समर्पण का होना, पूरी-पूरी श्रद्धा का होना बहुत सरल नहीं है, कठिन है, साधना पड़ता है, साधने से सिद्ध होता है। और आप यहाँ आते हैं, यह अध्यात्मिक केंद्र, यह धाम आपकी इस साधना को सिद्ध करने का उपाय है, माध्यम है कि कम से कम माह में एक बार मिलें और मिलते मिलते जैसे प्रेम बढ़ता है, प्रेम बढ़ने के साथ-साथ आकर्षण बढ़ता है और फिर समर्पण भी घटित होने लगता है। धीरे-धीरे समर्पण की अवस्था उपलब्ध हो जाती है। लेकिन मैं साफ साफ कहना चाहता हूँ, समर्पण या तो होता है या तो नहीं होता है। होता है तो पूरा-पूरा होता है नहीं होता है तो पूरा-पूरा नहीं होता है। जितनी महत्त्व्पूर्ण चीजें हैं पूरी-पूरी होती हैं नहीं तो होती ही नहीं हैं। जीवन है – या तो पूरा-पूरा होता है; या तो पूरा-पूरा नहीं होता है। जीवन है तो पूरा-पूरा, मृत्यु है तो पूरी-पूरी। ऐसे ही प्रेम होता है। प्रेम होता है तो पूरा-पूरा नहीं तो होता ही नहीं है।
गुरु से प्रेम हो जाय, समर्पण हो जाय तो पूरा-पूरा ही होता है लेकिन ये पूरा-पूरा होना थोड़े से लोगों के लिए ही होता है और जब पूरा-पूरा समर्पण हो जाता है तो उसको बिना मांगे ही सब कुछ मिल जाता है, सर्वस्व मिल जाता है। जो गीता, कुरान, बाइबिल से नहीं मिलता वो समर्पण से हो जाता है। जो दिनो-रात पूजा-पाठ करने से नहीं मिलता है, यज्ञ-हवन से नहीं मिलता है वो सिर्फ समर्पण से हो जाता है। पूरा-पूरा समर्पण कैसे घटित हो यही सारी साधनाओं का उद्देश्य है। सारी धर्म साधनाओ का उद्देश्य है कि कैसे-कैसे तुम्हारे प्राणों में समर्पण की घटना पूरी-पूरी घट जाय। प्रेम की घटना कैसे-कैसे पूरी घट जाय और जिस दिन ये पूरा-पूरा घट जाता है, तुम कोई शर्त लगाना बंद कर देते हो, बेशर्त, चाहे गर्मी हो, जाड़ा हो, धूप हो, चाहे बारिश हो, तुम्हारे कदम घर से उठते हैं उनमें घूंघर बंध जाते हैं, और तुम थिरकते-नाचते अपने गुरु के पास पहुँच जाते हो।
गुरु के माध्यम से आपके जीवन में प्रेम की पूरी-पूरी घटना घटनी शुरू हो जाती है। समर्पण की पूरी-पूरी घटना घटनी शुरू हो जाती है और सारी साधनाओं का एक ही उद्देश्य है की कैसे ये प्रेम की घटना, समर्पण की घटना तुम्हारे जीवन में घट जाय।
अगर थोड़ी देर तुम खुली आँखों से सद्गुरु को देख सको, थोड़ी देर तुम्हारे मस्तिष्क में कोई विचार न आये, सिर्फ देखते रह जाएँ; इस देखने में सच्चे अर्थों में सद्गुरु का दर्शन होता है लेकिन दर्शन के नाम पर तुम जहाँ-जहाँ जाते हो, चाहे मंदिर में जाते हो, चाहे तीर्थ स्थान पर जाते हो, अपने पूजा में बैठते हो या गुरु के दर्शन को जाते हो, तुम्हें कभी पूरा-पूरा दर्शन नहीं होता है। क्योंकि जब तुम देख रहे हो, देखते समय कोई न कोई विचार तुम्हारे चित्त में उभरता रहता है। जैसे ही देखते समय कोई विचार तुम्हारे चित्त में आ जाय उस समय जो चीज तुम्हारी आँखों के सामने थी वो हट गयी और जो मौजूद नहीं था वो विचारों के कारण तुम्हारी आँखों के सामने आ गया, उसी समय दर्शन भंग हो गया। जो जितने क्षण तुम सद्गुरु को देखते हो उसमें से शायद ही कोई क्षण ऐसा होता होगा जिसमें तुम कुछ सोच नहीं रहते होगे। इसलिए पूरा-पूरा दर्शन करने की कला, पूरा-पूरा दर्शन करने का विज्ञान सीखना है तो देखते समय, दर्शन करते समय, सिर्फ देखना ही हो जाय, देखने के अलावा और कोई बात तुम्हारे चित्त में न आये तब तुम्हारा देखना पूर्ण होता है। इसी तरह सुनते समय जब तुम सिर्फ सद्गुरु को सुन रहे हो, उस समय सद्गुरु को सुनने के अलावा और किसी चीज का विचार तुम्हारे चित्त में न आये तब सच्चे अर्थों में सद्गुरु को सुनना संभव हो पाता है। तो सद्गुरु का दर्शन हो सके या तुम सद्गुरु को पूरा-पूरा सुन सको तो पूरा-पूरा सुनने भर से भी सारा काम हो जाता है। सिर्फ सुनने भर से पूरा-पूरा काम हो जाता है। लेकिन सुनना पूरा पूरा हो, सुनना आधा-अधूरा न हो और अगर अपने सुन लिया तो यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि तुमने क्या सुना। यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मैंने किस विषय पर सुनाया, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मैंने क्या शब्द बोले, सिर्फ यही महत्त्वपूर्ण है कि तुमने अपने गुरु को पूरा-पूरा सुना।
… क्रमशः …
महा मेधा वर्कशॉप
विद्यार्थियों के लिये साइन्स डिवाइन महा मेधा (मेगा माइंड) वर्कशॉप
परीक्षा और कैरियर में 100% सफलता के लिए मस्तिष्क की असीम शक्तियों का उन्मुक्तिकरण
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वर्कशॉप की विषय-सूची:
- महामेधा क्रिया; मष्तिष्क की असीमित शक्तियों को उन्मुक्त करने की एक वैज्ञानिक तकनीक
- स्मृति और एकाग्रता में कई गुना वृद्धि के लिये अनुपूरक वैज्ञानिक पद्धतियाँ
- परीक्षा, कैरियर और जीवन में असीमित उपलब्धियों के लिये विचार शक्ति के विज्ञान का अनुप्रयोग
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साइन्स डिवाइन दिल्ली टीम
मोबाइल: 9810865755
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महामेधा क्रिया
मष्तिष्क की अनंत शक्तियों का अधिकतम उपयोग कराने वाली एक अत्यंत प्रभावशाली वैज्ञानिक विधि
आपका मष्तिष्क: कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य
मनुष्य का मष्तिष्क अत्यंत रहस्यपूर्ण शक्तियों का स्रोत है किन्तु, वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो चुका है की मनुष्य इन शक्तियों का 7 प्रतिशत से 15 प्रतिशत तक ही उपयोग कर पाता है, शेष मष्तिष्क क्षमता के उपयोग से सारी मनुष्यता वंचित रह जाती है। महामेधा क्रिया एक ऐसी परम वैज्ञानिक विधि है जिसके अभ्यास से मनुष्य अपनी मष्तिष्क क्षमता का अधिकतम उपयोग करने में सक्षम हो जाता है। यदि विद्यार्थी जीवन से ही इसका अभ्यास कर लिया जाये तो सम्पूर्ण जीवन में इसके चमत्कारी परिणाम अनुभव किये जा सकते हैं।
एक युवक के मष्तिष्क का औसत वजन 1.4 किग्रा होता है। मनुष्य के मष्तिष्क का वजन सम्पूर्ण शरीर के वजन का मात्र 3 प्रतिशत होता है, किन्तु शरीर के सम्पूर्ण आक्सिजन और रक्त आपूर्ति का 25 प्रतिशत उपभोग मष्तिष्क द्वारा ही किया जाता है। एक मष्तिष्क में 10 से 15 बिलियन न्यूरांस इतने सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते हैं कि एक पिन के ऊपरी सिरे पर 20 हजार न्यूरांस समा जायेंगे। इन न्यूरांस के पारस्परिक अंतर्संबंधों के आधार पर ही व्यक्ति की बुद्धिमत्ता निर्धारित होती है। मष्तिष्क में इन न्यूरांस के अंतर्संबंधों की संख्या कम से कम 10 ट्रिलियन होती है। इन अंतर्संबंधों को स्य्नाप्सेस कहा जाता है।
१. महामेधा क्रिया क्या है?
विद्यार्थियों की मानसिक क्षमता एवं बौद्धिक प्रतिभा में कई गुना वृद्धि करने में सक्षम महामेधा क्रिया एकाग्रता, स्मरण-शक्ति एवं आत्म विश्वास पैदा करने की एक परम वैज्ञानिक तकनीक है जो आधुनिक युग की विभिन्न परीक्षाओं में सफलता के उत्कर्ष पर पहुँचाने में चमत्कारिक रूप से सहायक है। अब तक के प्रयोगों में पाया गया कि अधिकांश मामलों में विद्यार्थियों के परिणामों में ४० प्रतिशत या उससे भी अधिक की वृद्धि हुई है। इस क्रिया के अभ्यास से धूम्रपान, मद्यपान एवं अन्य मादक पदार्थों यथा ड्रग्स आदि के सेवन से स्वतः मुक्ति मिलने लगती है। क्रोध, उद्दंडता, डिप्रेसन एवं अति-कामुकता जैसे नकारात्मक भावों से छुटकारा दिलाने वाली महा औषधि है महामेधा क्रिया। यही नहीं इस क्रिया के कुछ दिनों के अभ्यास से समस्त प्रकार के नेत्र-विकार दूर हो जाते हैं तथा विद्यार्थियों की आँखों पर लगा चश्मा भी शीघ्र ही उतर जाता है।
२. महामेधा क्रिया क्यों?
आधुनिकतम वैज्ञानिक शोधों के अनुसार बौद्धिक क्षमता जन्म-जात है। यह निष्कर्ष भी उल्लेखनीय है कि लगभग १४ वर्ष कि आयु के पश्चात् मनुष्य का बौद्धिक विकास रुक जाता है क्योंकि तब तक उसका शरीर पूरी तरह निर्मित हो चुका होता है और वह प्रजनन क्रिया से दूसरे मनुष्य को जन्म देने में सक्षम भी हो जाता है। इस उम्र के बाद बौद्धिक क्षमता में वृद्धि करने का कोई उपाय नहीं बचता। अतः उपलब्ध मानसिक एवं बौद्धिक क्षमता का अधिकतम उपयोग करने की तरकीब ही एक मात्र उपाय है जिससे इस दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि संभव है।
वैज्ञानिक शोधों से अब यह सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य अपनी मानसिक एवं बौद्धिक क्षमता का अधिकतम १५ प्रतिशत तक उपयोग कर पता है। अधिकांशतः अपनी मस्तिष्क-क्षमता का सिर्फ ६ प्रतिशत से ७ प्रतिशत तक ही उपयोग कर पता है। शेष मष्तिष्क-शक्तियां अप्रयुक्त पड़ी रह जाती हैं। महामेधा क्रिया मानव-मष्तिष्क में निहित क्षमता का अधिकतम उपयोग कराने वाली एक अत्यंत प्रभावशाली वैज्ञानिक विधि है। यदि अधिकांश लोग अपनी मष्तिष्क क्षमता का 10% से 20% तक ही उपयोग करने लगें तो यह दुनिया निश्चित ही अधिक सुन्दर, अधिक सुखमय और बिलकुल नयी हो जायेगी।
तनाव से राहत के लिए महामेधा
आकाश में ऊपर ऊंचाइयों तक उड़ सकते हैं। तब गुरुत्वाकर्षण की शक्ति आपके लिए उपयोगी बन जाती है। अगर आप उद्यम करते हैं, मनोबल और विचार शक्ति का प्रयोग करते हैं, तो सभी ग्रह आपके सहयोगी हैं, विरोधी नहीं। ये सारे भ्रम हैं। इसीलिए कहते हैं जिसका मनोबल ऊंचा होता है उसे और किसी चीज की जरूरत नहीं। नेपोलियन और हिटलर अपने मनन शक्ति के बल पर अपने हाथ की रेखाएं बदल देते थे। आपकी भी बदल सकते हैं। आप भी बदल सकते हैं अपनी जिंदगी। सिर्फ आपको अपने विचारों में परिवर्तन करने की विधि आ जाए। विचारों से परिर्वतन करने की तकनीक आ जाए। ग्रहों का प्रभाव १० प्रतिशत काम करता है ९० प्रतिशत विचारों की शक्ति काम करती है, आपका मनोबल काम करता है। मैंने एक महत्वपूर्ण सूत्र दिया आपको। हर दो-चार परिवार में एक व्यक्ति आपको मिल जाएगा, जो तनाव से ग्रसित होगा। तनाव एक मानसिक बीमारी है। जो चीज नहीं, मन उसको मान लेता है कि वह है और मन को महसूस भी होने लगता है। ये सारे नकारात्मक भाव, समस्त प्रकार के भय मनुष्य के चित्त में साकार हो उठते हैं। उसे ही तनाव कहते हैं। तनाव से मुक्त होने का सबसे प्रभावशाली उपाय है कि ऐसे व्यक्ति को सबसे पहले मेरे सम्पर्क में लाया जाय। ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में लाया जाए जो २४ घंटे हंसते हुए जीता हो। ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में लाया जाये जिसके जीवन में नाकारात्मकता आने से डरती हो, ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में जाया जाये जिसे न कहना आता ही नहीं तो, पहला उपाय ऐसे व्यक्ति को हंसी-खुशी के माहौल में लाया जाए। अगर कोई भी तनाव का मरीज मेरे पास आ जाए। दो-चार बार आ जायेगा तो मेरा सिद्ध वचन है कि उसका तनाव अपने आप खत्म होता चला जायेगा। उसे किसी डॉक्टर की जरूरत नहीं, एक बात। दूसरी बात, जिस परिवार का वह व्यक्ति है उस परिवार के लोग मानसिक रूप से, जिसके कहते हैं मैनटली, जिसको कहते हैं फीजियोथैरेपी, ऐसे व्यक्ति को फीजियोथैरेपी की जरूरत होती है। मानसिक रूप से उसे अपने विचारों में परिवर्तन करने की आवश्यकता होती है। आप घर के सदस्य उसको सहयोग दे सकते हैं। उसके मानसिक विचारों में परिवर्तन लाने की दिशा में। इसके अलावा उसे किसी ऐसे व्यक्ति से भी सहयोग दिलाए जो उसकी शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का भी उपचार कर दें। सबसे बड़ा उपचार जो मैं देना चाहता हूं। अगर आप उसे उपलब्ध करा सकें तो उस व्यक्ति को महामेधा क्रिया या संजीवनी क्रिया, इन दोनों में से कोई भी एक क्रिया का अभ्यास अवश्य कराएं। सिर्फ २१ दिन लगातार सुबह या शाम को महा मेधा क्रिया या संजीवनी क्रिया का अभ्यास कराएं। और ये क्रिया सीखने के लिए श्री सिद्ध सुदर्शन धाम में पूरी व्यवस्था है। वहां पर योग्य प्रशिक्षक है जो प्रतिदिन सायंकाल ५ से ६ बजे तक उपलब्ध रहते हैं। किसी भी सप्ताह में दो दिन शनिवार व रविवार में आप सीखिए। ये क्रिया तनाव के लिए रामबाण औषधि है। इस क्रिया को श्री सिद्ध सुदर्शन धाम में सीख सकता है वहां जाने पर संभावना है कि मुझसे मुलाकात भी हो जाएगी। और तनाव का समूल नाश हो सकता है और मैं उसमें सहयोग दूंगा। भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति को ले जाया गया। वह अंधा था। भगवान बुद्ध से कहा कि आपके पास लाए हैं, कुछ चमत्कार करिए। भगवान बुद्ध ने कहा कि इसको किसी वैद्य या किसी चिकित्सक के पास ले जाना चाहिए। ये मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है पहले उसका मानसिक उपचार कराइए। पहले वह मानसिक रूप से स्वस्थ हो जाए तब इसका मानसिक विकास किया जा सकता है। बच्चा पहले स्वस्थ हो जाये तब उसे मैराथन के लिए तैयार किया जा सकता है। मानसिक रूप से स्वस्थ करने के लिए जरूरत है शारीरिक चिकित्सा की, मानसिक चिकित्सा की; मन और शरीर दोनों एक साथ जुड़े हुए हैं। अगर कोई मानसिक रूप से ठीक नहीं है, तो उसमें शारीरिक रूप से कुछ कमियां हैं। एक तल पर विकार होता है। तो दूसरे पर भी संवेषित होता हैं। शरीर अस्वस्थ है तो मन पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। एक ही चिकित्सा करेंगे तो दूसरा कैसे स्वस्थ होगा। शारीरिक एवं मानसिक उपचार के लिए मैंने आपको बताया कि दो विधियां हैं। इन दो विधियों का अगर २१ दिनों तक प्रयोग कर लें तो उसके बाद उस व्यक्ति में परिवर्तन आने शुरू हो जाएंगे। इस क्रिया को करने से पहले वह किसी चिकित्सक की सलाह लें। इस क्रिया को वही कर सकता है जो शारीरिक रूप से स्वस्थ हो। तो, प्रथम चरण में जो काम वैद्य का, चिकित्सक का है वह वैद्य या चिकित्सक से ही कराना चाहिए। उसके बाद जब वह शारीरिक तल पर स्वस्थ हो जाए। फिर सद्गुरू का कार्य शुरू होता है। महामेधा क्रिया के द्वारा, संजीवनी क्रिया के द्वारा और मेरे सानिध्य के द्वारा और मेरे व्यक्तिगत सम्पर्क के द्वारा उसकी समस्या का समाधान किया जा सकता है। अगर मैं आप में से किसी के भी काम आ सकूं, इतनी ही मेरी कामना है इतनी सी मेरी इच्छा है, मात्र यही एक इच्छा मुझे इस शरीर से जोड़े हुए है और कोई इच्छा नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि आप सब अनावश्यक रूप से दुखी हैं। आपके दुख में जीने का तनाव मे जीने का, अशांति में जीने का कोई सही कारण नहीं है आप केवल अपनी नासमझी के कारण दुख में जी रहे हो यदि मैं अपने को दुखों से दूर कर सकता हूं, तो यहां बैठे एक-एक व्यक्ति अपने को दुखों से मुक्त कर सकता है। सिर्फ समझ की जरूरत है। मेरा मानना है कि धर्म सिर्फ समझ की क्रान्ति है। आपके भीतर जिंदगी के प्रति समझ पैदा हो जाए। आपके भीतर हंसते हुए जीवन जीने की समझ पैदा हो जाए। जीवन एक खेल है सिर्फ एक खेल। जिसमें बहुत उथल-पुथल, उतार-चढ़ाव है कितना महत्वपूर्ण सत्य है कि जीवन एक खेल है। मैं यहां पर कहना चाहता हूं यहां ५० साल, ६० साल के लोग आये हुए हैं, आप सिर्फ अपने जीवन के ५० महत्वपूर्ण कार्य लिखकर जाइयेगा। उन ५० महत्वपूर्ण बातों को लिखकर हमें दे जाइए। आपके छक्के छूट जाएंगे, पसीने छूट जाएंगे। ५० महत्वपूर्ण बातें ५० साल की जिंदगी में नहीं मिलेगी आपको। आप करने की कोशिश करेंगे, आप लिखने की कोशिश करेंगे और आप हैरान हो जायेंगे। ५० साल की जिंदगी में ५० बातें आप लिख नहीं पा रहे हैं। एक दिन की जिंदगी उसको आप इतना महत्वपूर्ण मान लेते हैं। उस दिन की द्घटनाओं को कि आज के दिन का हर कार्य उसको आप इतना महत्वपूर्ण मान लेते हैं, आपकी जिंदगी नरक हो जाती है।
पुण्य का पुरस्कार
जीवन में कभी पाप न करने वाला एक फकीर था। मृत्यु होने के बाद वह सीना तान करके गया कि मैं तो सीधे स्वर्ग में ही प्रवेश कर जाऊंगा। पूरी जिंदगी भर वह संभल कर चला था और निश्चिन्त भी था, इसीलिए उसमें थोड़ी अकड़ भी थी। सीना ताने जब वह स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचा तो दरवाजा बंद था। बाहर दूत खड़ा था। उसने फकीर का रिकॉर्ड देख कर कहा, भाई, यह पहला आदमी मेरी जिंदगी में ऐसा आया है जिसने धरती पर रहकर कोई पाप नहीं किया। अब वहां का द्वारपाल बड़े संकट में पड़ गया कि उसके साथ क्या सलूक किया जाय? उसने कहा, मेरे दोस्त मैं बहुत परेशान हूँ। हमारे स्वर्ग के संविधान के अनुसार जिसने बहुत पाप किया हो उसे तो नरक में भेज दिया जाता है। लेकिन जिसने पाप करके अपने पापों का प्रायश्चित कर लिया हो उसे स्वर्ग में भेजा जाता है। तो उसने कहा कि आप तो इसमें कहीं भी फिट नहीं हो रहे हो। आपने तो कोई पाप ही नहीं किया, तो मैं आपको न स्वर्ग भेज सकता हूँ और न नरक भेज सकता हूँ।
वह बेचारा फकीर बहुत परेशान, बहुत हैरान था। उसकी दुर्दशा को देखकर उस द्वारपाल ने कहा, देखो मैं तुम्हें बारह घंटे का समय देता हूँ, तुम्हें वापस पृथ्वी पर भेज देता हूँ। तुम जाओ और छोटा सा पाप कर लो और उसका प्रायश्चित करके आ जाओ। मैं तुम्हें स्वर्ग भेज दूंगा ताकि हमारी संविधान की व्यवस्था में आप फिट हो जायें। वह फकीर धरती पर वापस आ गया और सोच ही रहा था कि कौन सा पाप करूं? कुछ समझ नहीं पा रहा था। वह किसी गाँव में प्रवेश कर रहा था कि उसने देखा गाँव के बाहर ही एक मकान था। मकान के बाहर ही एक कलि-कलूटी, बदसूरत औरत खड़ी थी। उस फकीर के स्वास्थ्य को देखकर उसके अन्दर इच्छा पैदा हुई कि यह व्यक्ति अगर मेरी ओर आकर्षित हो जाये, मुझे प्रेम करे तो कितना अच्छा होगा। उस औरत को देखकर फकीर ने सोचा कि इस बदसूरत औरत के साथ अगर प्रेमानुभव हो जाता है तो मेरा थोड़ा सा पाप हो जायेगा। फिर मैं उसका प्रायश्चित कर लूँगा। सुनहरा अवसर है, इसको स्वीकार कर लेते हैं। वह फकीर उसके पास गया उसके आमंत्रण को स्वीकार किया और उस बदसूरत औरत के प्रति पूरा प्रेम व्यक्त किया।
जब प्रातः काल फकीर उससे विदा लेने गया, तो उसने सोचा कि मैंने एक पाप कर्म कर लिया है, अब मैं हाथ जोड़कर प्रायश्चित कर लूँगा और स्वर्ग का भागीदार बन जाऊँगा। उस औरत ने कहा कि मेरी जिन्दगी में तुम पहले आदमी हो, जिसने मुझे पूरे प्राणों से प्रेम किया है। मैं भगवान को साक्षी मानकर कहती हूँ कि तुमने जो पुण्य मेरे प्रति किया है, परमात्मा उस पुण्य का पुरस्कार तुम्हें जरूर देगा। अब उस फकीर को काटो तो खून नहीं। उसने कहा कि मैं तो पाप करने आया था और यह औरत कह रही है कि तुमने मेरे प्रति जो पुण्य किया है, परमात्मा उस पुण्य का पुरस्कार अवश्य देगा।
अब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि यह कृत्य उसका पाप कृत्य था या पुण्य कृत्य? बहुत मुश्किल है कह पाना कि कौन सा कृत्य पाप है, कौन सा कृत्य पुण्य है। क्या शुभ है, क्या अशुभ है? समाज नैतिकता के आधार पर व्यवस्था को संचालित करने के उद्देश्य से कुछ नियम बना लेता है, जिससे समाज की व्यवस्था चलती रहे। इसीलिए बचपन से ही जब बच्चा इस धरती पर आता है, तो उसको डराया जाता है कि यह पाप है, यह पुण्य है। यह शुभ है, यह अशुभ है, इसको करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए। केवल इस उद्देश्य से कि जो नियम समाज के व्यवस्थापकों ने बनाये हैं, वे लागू रहें। इससे अधिक उसका और कोई मूल्य नहीं है। हर समाज अपनी व्यवस्था अपने ढंग से बनता है। हमारे हिन्दू समाज में समाज के संस्थापकों ने ऐसा विधान किया कि कभी अपनी बहन के साथ, अपनी चचेरी बहन के साथ विवाह करने की कल्पना ही नहीं कर सकता है। अगर कहीं कोई सोचे भी तो इसे बहुत बड़ा अनर्थ और बहुत बड़ा पाप घोषित कर दिया जायेगा। लेकिन मुस्लमान भाइयों के यहाँ बड़े आराम से भाई बहन की शादी हो जाती है, उनके यहाँ यह पाप नहीं है। समुदाय विशेष के घोषित कर देने से कोई कृत्य पाप या पुण्य नहीं बन जाया करता है, सत्य सारे ब्रम्हांड पर लागू होता है। इसी तरह से कुछ देशों में जैसे कि नीदरलैंड में भाई प्रतीक्षा करता है कि मेरी सगी बहन हो जाये तो मैं उससे विवाह कर लूं, नहीं तो संपत्ति का अधिकार दूसरों को चला जाएगा। बड़ी हीनता के भाव से देखा जाता है उस परिवार को जिस परिवार के बेटे को विवाह करने के लिए बहन नहीं है। तो बहुत मुश्किल हैं पाप, पुण्य का तय कर पाना। कोई कृत्य न पाप है, न कोई कृत्य पुण्य है। बहुत कुछ करने वाले पर और करने की परिस्थिति पर निर्भर करता है। कभी कभी आप पुण्य करना चाहते हैं तो वह पाप हो जाता है और कभी कभी आप पाप करना चाहते हैं तो वह पुण्य हो जाता है। फकीर जान बूझकर पाप करना चाहता था लेकिन कर नहीं पाया, वह पुण्य हो गया। अतः आप होश में आकर कोई पाप नहीं कर सकते हैं। मैं दूसरे शब्दों में कहूं कि अगर आप होश में हैं तो आपके द्वारा किसी प्रकार का पाप हो जाये यह संभव नहीं है। जब भी आप अपना होश खो देते हैं किसी न किसी कारण से, तो जो कृत्य होता है वह पाप हो जाता है। यह मैं पाप-पुण्य की परिभाषा दे रहा हूँ। आप प्रयोग करके देखिये। होश में रहकर आप किसी को गोली मारने की कोशिश करोगे तो कभी नहीं मार पाओगे। आप होश में रहकर कभी चोरी करने की कोशिश करो चोरी नहीं कर पाओगे।
बुद्ध का एक परम शिष्य हुआ करता था आनंद। बुद्ध शिक्षा देते थे कि स्त्रियों के पास जाने में सावधान रहना, नहीं तो तुम्हारे ध्यान की प्रक्रिया भंग हो जाएगी और तुम ध्यान से विमुक्त हो जाओगे। आनंद ने एक दिन अपने गुरु से कहा कि गुरूजी – अगर ऐसी परिस्थितियां बन ही जाती हैं कि मुझे किसी स्त्री के पास रहना पड़े, तो आप बताएं कि विशेष परिस्थिति में औरत के पास ठहर जाऊं या न ठहरूं। गौतम बुद्ध ने कहा, अगर ऐसी परिस्थिति आ जाती है तो तुम रुक जाना। लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि उसकी ओर देखना नहीं, उसके रूप, सौन्दर्य को अपनी निगाहों में प्रवेश मत होने देना। आनंद ने कहा, गुरूजी बहुत मुश्किल है। अगर ठहरना ही पड़ा और कोई न कोई ऐसी परिस्थिति आ ही जाये कि देखना भी जरूरी हो जाये तो औरत को देखना है कि नहीं देखना है? गुरूजी ने कहा, कोई बात नहीं देख लेना। लेकिन एक शर्त है कि उसे स्पर्श मत करना। शिष्य भी शिष्य होता है, जब ह्रदय खोल कर बैठता है, तो गुरु को भी संकट में डाल देता है। मैं यही कहना चाहता हूँ कि आप जो भी करना चाहो करो, केवल होश में रहने की कला सीख लो, फिर पाप आपके हांथों से नहीं होगा, उसका करने वाला मैं रहूँगा, आप नहीं होंगे। इसी प्रकार आप अपने सभी कर्मों को मुझे समर्पित कर दो और स्वयं आनंद और प्रेम से भर जाओ।
प्रेम और प्रार्थना
जब आप प्रेम करोगे तो अद्भुत शांति आपके चित्त में व्याप्त होने लगेगी। बिना प्रेम के चित्त में शांति नहीं आ सकती है, बिना शांति के जीवन तनावमुक्त नहीं हो सकता है, और तनाव मुक्त हुए बिना कोई पूजा प्रार्थना संभव ही नहीं हो सकती है। …
अपनी अंतरात्मा से निकले शब्द ही ईश्वर के प्रति असली प्रार्थना है। …
प्रार्थना जीवन का विज्ञान है, और उस विज्ञान को प्राप्त करने के लिये कला चाहिए। …
प्रार्थना सीखी नहीं जाती, प्रार्थनाएं सीखने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रार्थना तो आप अपने आप सीख जाते हो वैसे ही जैसे प्रेम सिखाया नहीं जाता है, आप प्रेम करना अपने आप सीख जाते हो। वैसे ही आप प्रार्थना सीख जाओगे। …
पाप और पुण्य
पाप और पुण्य की मैं एक ही परिभाषा करता हूँ कि तुम जिस कृत्य में पूरी पूरी ऊर्जा के साथ उतर गए वो पुण्य कृत्य हो गया। अगर किसी को आपने पूरा-पूरा प्रेम किया तो वो पुण्य कृत्य हो गया। और अगर आपने अधूरा-अधूरा कार्य किया तो वह पाप कृत्य हो गया। सन्यासी मैं उसी को कहता हूँ जो प्रतिपल जी रहा है, वर्तमान में जी रहा है, पूरी ऊर्जा से जी रहा है। जहाँ है, जैसे है उसी में जी रहा है। लेकिन तुम हमेशा भविष्य में जीते हो, भविष्य में उलझे रहना तुम्हारे समस्त दुखों का कारण बन जाता है।
सद्गुरु साक्षी राम कृपाल जी
द गुरु पत्रिका, जुलाई २०१२ अंक