परमात्मा – कौन, कहाँ?
सभी ब्रह्माण्ड नायक परमात्मा जो जो हमारे कण कण में समाया हुआ है, वह अंदर और बाहर दोनों ही ओर परमात्मा है। अंदर मेन उसकी ज्योति है और बाह्य रूप से वह साकार है। अर्थात निराकार और साकार दोनों ही स्वरूप मेन वही है। हर जीव के अंदर वह बसा हुआ है। चींटी में भी है, हाथी में भी है। कबीर दास जी कहते हैं कि
घट-घट मेरा साइयाँ सूना घट नहीं कोय। बलिहारी वा घट की जिस घट प्रगट होय।
अर्थात जिस घट में वह प्रत्यक्षीकरण हो जाता है, प्रगट हो जाता है उसकी बलिहारी है। हमारे भाष्यकार भगवान रामानुजाचार्य ने सब जगह शास्त्रों में आज्ञा लिखी है। हमारे शास्त्रों में भाष्यकार भाष्यकार भगवान ने लिखा है – दिव्याज्ञा, किम दिव्याज्ञा क्या है?
“रामानुजाचार्य दिव्याज्ञा वरदतामति वरिताम” यानी जो कार्य कर रहे हैं उसे रात दिन बढ़ाते चले जाइये। उसमें भगवान की अति प्रसन्नता होती है। इसी विषय को लेकर के हमारे परम प्रिय, हमारा अंग जिसको शिष्य कहते हैं, मैं उसको अंग कहता हूँ। लोगों का मानना है कि शिष्य, चेला-चेली इसीलिए बनाए जाते हैं कि वे सेवा करें। यह शायद उनका अर्थ गलत है। शिष्य और शिष्या बनाने के बाद तो पुत्रवत हो गये, पुत्रीवत हो गये, आत्मा के समान हो गये। तो हम अपनी आत्मा की जैसे रक्षा करते हैं ठीक उसी प्रकार से सद्गुरु अपने शिष्यों की रक्षा करके उन्हें अपना अंग बनाता है।
हमारे परम प्रिय अंग और शिष्य रामकृपाल जी बैठे हुए हैं। हमने इनको बहुत पूर्व यही कहा, उपाध्याय तुम मेरी आज्ञा को मानो। अब जन कल्याण के लिए, अब जनसमूह के लिए कल्याण का कार्य करिये। आप अपने कल्याण में ही लगे रहेंगे तो आपका क्या जीना? एक वृक्ष अपने लिए नहीं जिया करता है, वह दूसरों के लिए जीता है। वह अपनी छाया से भी लाभ देता है। वह अपनी गहन छाया में सबको बैठाता है, उसके पत्तों और फल से भी लाभ होता है। जीना उसी आदमी का श्रेष्ठ है, जो दूसरों के लिए जीये, अपने लिये जिया तो क्या जिया। इसलिए तुम ऐसा कार्यक्रम शुरू करो जिसमें अनेकानेक जनता को ज्योतिष के माध्यम से, इष्ट के माध्यम से और गुरु कृपा के माध्यम से अधिक से अधिक लाभ मिले, अच्छे कल्याण का मार्ग मिले। क्योंकि आजकल यह समाज भटक गया है और समाज के भटकने की वजह से जगह-जगह यंत्र, तंत्र और मंत्र वालों के पास में मुर्गे और बकरे कटवाये जाते हैं। शराब की बोतलें चढ़ाई जाती हैं। आप लोग विचार कीजिये कि आप किसी के लिए शराब पिलायें मांस खिलाएंगे तो सबसे पहले पापी तो आप ही हो गये जो आपने जीव हिंसा करायी। तो सबसे पहले तो नरक के भागी आप होंगे वह जब होगा तब देखा जायेगा और एक छोटी सी इच्छा के लिए हम कितने जीवों को नष्ट करा देते हैं। क्या यही हमारा धर्म है? यह हमारा धर्म तो है-यज्ञ के द्वारा, दान के द्वारा “धर्म न हन्यते: व्याधि”। धर्म के द्वारा सभी व्याधियाँ, कैंसर जैसे रोगी ठीक हो जाते हैं। आपके सिद्धदाता आश्रम में सैकड़ों कैंसर के मरीज ठीक हुए हैं और आज भी जिवंत हैं।
हमने रामकृपाल जी से कहा कि तुम एक ऐसी संस्था कायम करो, जिससे सद्जीवी अच्छे वर्ग के लोगों का कल्याण हो सके। अगर किसी व्यक्ति मेन अवगुण हो, उसके अंदर किसी प्रकार का व्यसन हो, सौ गाड़ी हो, चार बंगले हों तो मैं उसे अच्छा नहीं कहता। मैं उसे सबसे निकम्मा आदमी कहता हूँ। भगवान ने सब कुछ दिया है। क्या यह दारू पीने के लिए, मांस खाने के लिए और घूमने के लिए दिया है। तुझे कुछ समझा है तो उसने दिया है। सरकार भी किसी को योग्य समझती है तो पद देती है, वरना अयोग्य को पद दे देगी तो भ्रष्ट हो जाएगी सरकार। इसीलिए तुझे योग्य समझकर बहुत कुछ दिया है। तू योग्यता का काम कर। जो अयोग्यता का काम कर रहा है उसे मैं सबसे बुरा मानता हूँ। अच्छा आदमी उसे मानता हूँ चाहे वह गरीब है या अमीर है, चाहे घर में सुबह से शाम को कहने को नहीं है। पर जिसके कर्म समाज के लिए अच्छे हैं और भगवान के लिए अच्छे। श्रेष्ठ जनों की जो व्याधियाँ हैं, उनके निवारण के लिए आप कुछ योजना बनाइये। उनको जरा यह शंका हो गयी कि गुरु जी, मैं सरकारी पद पर हूँ। आपकी कृपा से अच्छा पद है। अगर आप चाहोगे तो पदोन्नति भी कर दोगे। मैंने कहा, बात तो ठीक है, पर क्या सरकार में नौकरी करने वाले धर्मात्मा नहीं होते, क्या वे राक्षस होते हैं? मानव का कर्तव्य है सेवा करना। इसीलिए तुम जनसमूह कि सेवा करो। कोई अगर यह समझे कि यह पैसे के लिए सेवा कर रहा है, तो ऐसी बात नहीं है। सरकार तुमको अपने गुजारे लायक दे रही है और तुम चाहोगे तो प्रमोशन भी करा देंगे।
वह धर्म क्या है जिसमें खुशी न हो। वह धर्म क्या जिसमें आनंद न हो, वो धर्म क्या है जिसमें आत्मा प्रफुल्लित होकर रोम-रोम न खड़े हो जायें। वह मायूस धर्म किस काम का है, जब चेहरे पर उदासी बनी रहे और रात दिन चिंता बनी रहे। धर्म वही है तो आनंदित हो, प्रफुल्लित हो, खुशी देता हो। हम धर्मात्मा बनने के लिए आते है या प्रयास करते हैं। पर हमें उतना लाभ या खुशी नहीं मिल पाती है। इसीलिए शिकायत रहती है लोगों के बीच में कि हम तो परमात्मा के भक्त होना चाहते हैं, प्रभु की सेवा भी कर रहे हैं, माई की आरती भी उतारते हैं और अनेकानेक प्रकार के धर्मग्रंथों को भी पढ़ रहे हैं और संतों को भी मान रहे हैं, फिर भी हमारी खुशहाली नहीं है। उसी संदर्भ में दो चींटी वाली बात बताता हूँ।
दो चींटी मित्र हो गयी। एक चींटी शुगर मिल में रहती थी और एक नमक फ़ैक्टरी में। जो चींटी शुगर मिल में रहती थी, उसने अपने मित्र से कहा, तुम हमारे घर आना। तो नमक फैक्टरी वाली चींटी शुगर मिल वाली चींटी के पास मिलने गयी। उसने शुगर को खाने के लिए इशारा कर दिया। फिर उसने पूछा कैसा लगा, उसने कहा खारा। उसने दूसरी बार फिर खाया तो फिर कहा खारा। तीसरी बार खाया, चौथी बार खाया, तब भी उसने कहा खारा। शुगर मिल वाली चींटी बोली, ‘मित्र, तू एक बात बता कि तू कहीं नमक की डली तो मुंह में लेकर नहीं आ गयी?’ तो वह बोली-‘हाँ, सो तो लायी हूँ। मैंने सोचा मुझे वहाँ खाने को मिले या न मिले। पता नहीं कितनी देर में मिले। भूख लगी तो उसे खा लूँगा।’ तब उसने कहा, ‘इसे निकालकर फेंक दे और अब शुगर खा।’ मुंह से नमक निकालते ही चींटी को शुगर मीठी लगने लगी।
तो मेरे कहने का मतलब है कि आपकी पूर्ण समर्पणता नहीं होती कि पता नहीं यहाँ काम होगा या नहीं होगा। पता नहीं हमारा समय बर्बाद जा रहा है, पता नहीं भगवान का नाम लेने से क्या होता है? भगवान हमारा क्या कर देंगे? यह नमक की डली तुमने मुँह में दाल रखी है। जब तक इस नमक की डली को बाहर नहीं फेंकोगे तब तक तुम्हारा कुछ नहीं होगा। जो करेगा परमात्मा करेगा, भगवान करेगा। जो हमको मार्ग बता रहे हैं, वह मार्ग अच्छा मार्ग है, बुरा नहीं है। इस पर चलने से हमें आज नहीं कल आनंद होगा। नमक की डली रखोगे तो नमक ही नमक रहेगा। अगर नमक को निकाल दोगे तो पहली बार खारापन आ सकता है, बाकी तो मीठा ही मीठा होगा। इसी तरह से मैंने राम कृपाल से कहा कि तुम वहाँ एक धार्मिक केंद्र की स्थापना करो। उस धार्मिक केंद्र में सज्जन आदमी, बहन, बेटियों का बाइज्जत आवागमन होता रहे। इस तरह के केंद्र की स्थापना कीजिये ताकि वहाँ पर अनेकानेक व्याधियों का शमन अनेकानेक व्याधियों का निवारण हो।
हमने कहा ऐसे केंद्र की स्थापना कीजिये, जहां पर देवकृत, राजकृत, ग्रहकृत एवं यंत्र, तंत्र और मंत्र से पीड़ित लोग हैं, उनका कल्याण हो, उनके लिए अच्छी भक्ति का मार्ग मिले। उनके दुख का निवारण हो। इसी लक्ष्य को लेकर हम यह केंद्र का निर्माण करा रहे हैं। पता नहीं यह रामकृपाल क्यों भीतर से घबरा रहा है। हमने कह दिया कि “जाके ऊपर हाथ है तेरा सो दुख कैसा पावे” जब उस गुरु महाराज का हाथ ऊपर है तो तू दुख क्यों पायेगा। अपने केंद्र को संभालते रहिए और सबको अच्छा मार्ग दीजिए। यह मेरा मानना है, मेरा लक्ष्य है कि शिष्य बढ़े और मेरा यह भी लक्ष्य है कि मेरा शिष्य इतना बढ़े जो मुझे शास्त्रार्थ में हरा दे तो मुझे खुशी होगी तो मानूँगा कि मेरा शिष्य ऊपर है। अगर मुझसे हार गए तो क्या शिष्य। वह क्या कर पायेगा इस दुनिया में। मुझे हराने वाला शिष्य बने ताकि मेरी एक धारणा बन जाये कि अगर कल हमारा शरीर नहीं रहेगा, तब भी कोई बात नहीं, धर्म कायम रहेगा।
– ब्रह्मलीन स्वामी सुदर्शनाचार्य जी महाराज