भूत, प्रेत और भय

इस भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत की विराट सम्पदा मनुष्य को प्राप्त हो सकती है।  किन्तु इसके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है कि आप अपने प्रति सम्मान के भाव से भरें, और अपने प्रति अपराध के भाव से मुक्त हों।  जो आपका आत्मतत्व है, आत्मस्वरूप है, आपका अपना व्यक्तित्व है उसके प्रति भी आपके ह्रदय में सम्मान होना चाहिए।  लेकिन सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि आप तो अपने प्रति ही सबसे ज्यादा निराशा से भरे हुए रहते हो।  आपको लगता है कि जैसे आप कुछ हो ही नहीं।  आपको बहुत कुछ करना चाहिए था, जबकि आप कुछ नहीं कर पाए।  आप इस छोटे से समाज में व्यक्ति बनकर रह गये।  यह पीड़ा आप सबको भीतर ही भीतर ग्रसित किये रहती है।  एक विचित्र प्रकार का भय आपको हमेशा पकड़े रहता है और इसका दुष्परिणाम होता है कि आप हमेशा उदासी, निराशा और कुंठा में जीते रहते हैं।  इस तरह जीने की आदत तरह तरह की बीमारियों और कष्टों को आमंत्रित करती रहती है, और आप उनके शिकार होते चले जाते हैं।  आप तरह-तरह के लोगों के पास जाते हैं कि हमारे कष्ट का निवारण कीजिये, हमारे लिए कुछ उपाय बताइए।  लेकिन इस बीमारी की जड़ है आपके चित्त में अपने ही प्रति सम्मान के भाव का अभाव, और अपने प्रति अपराधबोध।  इस विषय पर ऋषियों-मनीषियों ने बड़ा चिंतन किया और उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण बात कही कि जब आप कुंठा से ग्रसित होते हैं, जब आप दुःख में या निराशा में होते हैं और जब आप अपने प्रति ही अपराधबोध से भरे होते हैं तो आपके भीतर जो सूक्ष्म शरीर है, या आपका जो चेतन शरीर है, वह इतना सिकुड़ने लगता है कि आपके शरीर के भीतर बहुत जगह रिक्त हो जाती है।  उस खाली जगह में तरह-तरह की आत्माएं प्रवेश कर जाती हैं जिससे आपका व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है।  और जो आत्मा प्रवेश करती है उस आत्मा का प्रभाव आपके शरीर पर, आपके चित्त पर, आपके ह्रदय पर गंभीरता से बैठ जाता है।  और यह आपके जीवन में तरह-तरह की पीड़ाएं पैदा करता है। जिस व्यक्ति का मनोबल व संकल्प क्षीण होता है उसका शरीर इस ब्रम्हांड में घूमती हुई दुखी पीड़ित आत्मा को आमंत्रित करता है, और वह तरह-तरह की पीड़ाओं का शिकार हो जाता है।

आप और आपका सूक्ष्म शरीर

इस पृथ्वी पर चार प्रकार के लोग पाए जाते हैं।  कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो अच्छाई और बुराई के भाव से परे होते हैं।  ऐसी आत्माओं को पुनः जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती, वे इस जन्म मृत्यु के बंधन से परे हो जाते है, इन्हें असली संत और असली महात्मा कहते हैं।  उनके लिए अच्छाई और बुराई कोई अर्थ नहीं रखती है।  उनके लिए सब बराबर हैं, उनको सबसे प्रेम होता है, किसी के प्रति घृणा नहीं होती है।  इसी तरह कुछ ऐसे व्यक्तित्व होते हैं जो अच्छाई और बुराई के प्रति समतुल्य होते हैं यानी दोनों को समान भाव से देखते हैं, वे भी इस जन्म मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।  लेकिन तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं जो साधारण प्रकार के होते हैं, जिनमें अच्छाई भी होती है और बुराई भी होती है।  दोनों का मिश्रण होता है – उनका व्यक्तित्व।  ऐसे साधारण प्रकार के लोग अपनी मृत्यु होने के बाद तत्काल किसी न किसी गर्भ को उपलब्ध हो जाते हैं, किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेते हैं।

लेकिन चौथे प्रकार के लोग असाधारण प्रकार के लोग हैं, जो या तो बहुत अच्छे लोग होते हैं या बहुत बुरे लोग होते हैं। अच्छाई में भी पराकाष्ठा और बुराई में भी पराकाष्ठा।  ऐसे लोगों को दूसरा गर्भ प्राप्त करना कठिन हो जाता है।  उनकी आत्माएं भटकती रहती हैं।  प्रतीक्षा करती रहती हैं कि उनके अनुरूप कोई गर्भ मिले तभी वह उसमें प्रवेश करें।  जैसे हिटलर, नेपोलियन गांधीजी और अन्य महापुरुष।  जो अच्छाई की दिशा में उत्कर्ष पर होते हैं वे प्रतीक्षा करते हैं कि उनके अनुरूप ही योनी मिले।  जो बुराई की पराकाष्ठा पर होते हैं वे भी प्रतीक्षा करते हैं।  देव आत्माएं जो पराकाष्ठा पर रहती हैं, वही आत्माएं होती हैं जिन्हें बुरी आत्मा कहते हैं, यह अतियों पर होती हैं और मृत्यु का बाद उन्हें गर्भ प्राप्त करने में कभी-कभी बहुत ज्यादा समय लग जाता है।  ये आत्माएं जो अगले गर्भ की प्रतीक्षा करती रहती हैं ये ही मनुष्य के शरीर में भूत-प्रेत का रूप लेकर प्रवेश करती हैं और उन्हें तरह-तरह की पीड़ाओं से ग्रसित करती हैं।

अब प्रश्न उठता है कि ये आत्माएं किसकी पकडती हैं और किसके शरीर में प्रवेश करती हैं? कौन होता है इनका शिकार?  जिसकी आत्मा जितनी ही अधिक संकल्पवान होती है, जिसका मनोबल ऊंचा रहता है, जितना ही आत्म-सम्मान का भाव जिस व्यक्ति की आत्मा में अपने प्रति प्रगाढ़ होता है, उस व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर उतना ही विकसित होता है, भरा रहता है।  आपके शरीर में आपका सूक्ष्म शरीर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।  यही आपको संचालित करता है।  जब आपकी आत्मा का मनोबल व संकल्प शक्तिशाली होता है, आप खुश होते हैं, आप आनंद में होते हैं, आप अपने प्रति आत्मसम्मान से भरे रहते हैं।  तब आपका सूक्ष्म शरीर विकसित होता हिया, फैलता है और आपके शरीर में पूरी तरह व्याप्त रहता है, यह सबसे बड़ा गुण है सूक्ष्म शरीर का।  यही स्वरुप उस ब्रम्हा का भी है।

  1. aati uttam utkrishtha,adbhud bate jo hamne kabh nahi suni.such word by guruji which he has spread no body has done ,it is small but bigger then bigger,
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    Rudra Dubey

  1. पिंगबैक: भूत, प्रेत और भय | साइंस ऑफ़ डिवाइन लिविंग

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