Author Archives: अजय प्रताप सिंह

प्रेम मांगो नहीं लुटाओ

जो प्रेम की मांग करता है, आज तक उसने इस दुनिया में प्रेम नहीं पाया है।  प्रेम पाने का एक ही उपाय है – प्रेम लुटाओ।  आप किसी दूसरे व्यक्ति की आँखों में प्रेम की भावना से झांकोगे, तो दूसरी ओर से घृणा नहीं, प्रेम की सरिता बहेगी।  अगर आप ह्रदय की गहराई से किसी का हाथ पकड़ोगे तो दूसरे के हाथ से भी प्रेम की ऊष्मा आएगी जिसका आपके हाथों के द्वारा अनुभव भी होगा।  लेकिन आपके प्रेम में कांटे ही कांटे हैं, फूल नहीं।  क्योंकि अपने अहंकार का विसर्जन नहीं किया है।  फिर भी मैं कहता हूँ कि यदि प्रेम में कांटे भी हों, तो प्रेम गुलाब के फूल जैसा है। काँटों में ही फूलों का मजा होता है।  जब प्रेम का भाव जागता है तो आप थोड़ा शुभ की ओर कदम बढ़ाते हो, थोड़ा सौन्दर्य कि ओर कदम बढ़ाते हो, थोड़ा सजते हो, श्रृंगार करते हो और आपके भीतर भी थोड़ी दिव्यता का भाव आने लगता है।

वर्तमान में जीवन जीने का विज्ञान

इस संसार में बहुत कुछ है जो तुम्हें भी उलझाये रहता है। वही आने वाला कल और वही बीता हुआ कल।  भूतकाल और भविष्यकाल। पूरा संसार मानो बाजार है जिसमें तुम उलझे पड़े हो।  अगर तुम्हें साक्षी की तरह जीना आ जाये, घटनाओं को सिर्फ देखते हुए जीना आ जाये, तुम निर्णय मत दो, तुम उलझो नहीं, जो कुछ हो रहा है उसके दृष्टा बन जाओ, उसके साक्षी बन जाओ, तो साक्षी बनते ही तुम वर्तमान में जीने लगते हो और वर्तमान में जीना जैसे ही शुरू होता है वैसे ही भीतर का आनंद फूट पड़ता है।  भीतर आनंद के झरने फूट पड़ते हैं, ये साक्षी भाव की साधना है, इसी को हम कहते हैं ध्यान।  और संजीवनी क्रिया के माध्यम से, महामेधा क्रिया के माध्यम से हम आपको साक्षी की अवस्था में ले जाते हैं  और यह साधना – मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों के चक्कर काटने से नहीं अपने जीवन को साधने से होती है।  वर्तमान में रहने का अभ्यास करने से यह सिद्ध होता है।  तो पहला उपाय वर्तमान में जीने का साक्षी होकर जीना, दृष्टा होकर जीना, तटस्थ होकर जीना, चीजों को देखते रहना, ये समझना कि मैं कर्ता नहीं हूँ, मैं तो सिर्फ दृष्टा हूँ, जो कुछ भी हो रहा है मैं सिर्फ उसका देखने वाला हूँ करने वाला हूँ।  जब कर्ता भाव का विसर्जन हो जाता है, तब  आपके भीतर यह भाव भर जाता है कि सबकुछ तो इस अस्तित्व में हो रहा है, रोज-रोज कहता हूँ – रोटी खाते हो खून बन जाती है, गाय भूसा खाती है भूसा दूध बन जाता है।  इस संसार में जाड़ा-गर्मी-बरसात, दिन-रात, अंधकार-प्रकाश, सब-कुछ अपने हिसाब से आ रहा है – जा रहा है, आपकी कोई भूमिका नहीं है।  आपकी साँसें आ रही हैं, जा रही हैं, प्रकृति सन्देश दे रही है कि सबकुछ अस्तित्व में, अस्तित्व कि ऊर्जा से संचालित हो रहा है।  करोणों-अरबों ग्रह-नक्षत्र, सूर्य, चाँद, तारे इस ब्रम्हांड में अपनी धुरी पर घूम रहे हैं, कोई एक-दूसरे से टकराता नहीं है, एक नियम में यह अस्तित्व सबको नियंत्रित किये हुए है, सबको समाहित किये हुए है, सबकुछ स्वतः हो रहा है।  अगर तुम्हारे भीतर से यह भाव हट जाये कि तुम करने वाले हो तो जब तुम कर्ता नहीं रह जाते हो तो तुम साक्षी बन जाते हो।  तो हमेशा ये अभ्यास करो कि तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो, दृष्टा हो।  खाना खा रहे हो तो उस समय देखो कि ये शरीर खाना खा रहा है।  तुम शरीर नहीं हो, शरीर को खाना खाते हुये देखना अपने शरीर के बाहर खड़े होकर, ये साक्षी का अभ्यास है।  तुम मुझे सुन रहे हो, अपने शरीर के बाहर खड़े हो जाओ और देखो कि गुरुदेव बोल रहे हैं और तुम्हारा शरीर सुन रहा है और तुम दोनों को देख रहे हो, गुरुदेव को भी देख रहे हो।  जो भी – जितने भी कृत्य तुम करते हो उन सारे कृत्यों के प्रति तुम साक्षी हो जाओ तो साक्षी होते-होते, साक्षी का अभ्यास करते-करते तुम वर्तमान में जीने लगोगे।  तुम्हारे भीतर समर्पण घटित होगा।

परिवर्तन

जब आपके जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन आता है तो यह आपको दिशा परिवर्तन के लिए मजबूर करता है।  सम्भव है नया रास्ता कभी कभी आपको आसान न लगे लेकिन आप पूरी तरह निश्चिंत हो सकते हैं कि इस पथ पर आपके लिए वैभव है।  आप पूरी तरह निश्चिंत हो सकते हैं कि इस पथ पर जो भी कुछ भी प्राप्तियाँ हैं वह किसी और प्रकार से आपको अनुभव न होतीं।

जब हम भूतकाल की किसी नकारात्मक घटना की ओर देखते हैं तो हम पाते हैं कि इसने किस प्रकार हमारे जीवन को प्रभावित किया।  हम यह पाते हैं कि उस घटना ने हमें जीवन में वह दिशा दी जिसे हम किसी भी प्रकार से बदल नहीं सकते थे।

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वर्तमान में जीवन जीने का विज्ञान

भरोसा चमत्कार करता है, भरोसा जादू करता है।  ये मूर्तियों की रचना आध्यात्म के वैज्ञानिकों ने क्यों की?  ताकि मूर्ति में तुम परमात्मा की प्रतिष्ठा करके मूर्ति के माध्यम से ही तुम उस परिणाम को प्राप्त कर सको जो समर्पण के माध्यम से प्राप्त होता है।  समर्पण ही सभी धर्मों का सार है।  मैं तो सारी दुनिया को सन्देश देता हूँ कि समर्पण ही धर्म है।  और समर्पण का अगर अभ्यास अगर आपको हो जाय तो समर्पण के चमत्कारिक परिणाम हो सकते हैं।  समर्पण घटते ही जो दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना घटती है वह है अहंकार का विसर्जन।  तुम सब कुछ छोड़ देते हो कि करने वाला मैं नहीं हूँ, करने वाले गुरुदेव हैं, करने वाले प्रभु हैं, परमात्मा हैं, तब अहंकार धीरे-धीरे विसर्जित होने लगता है और अहंकार ही तो सब दुखों का मूल है।  अहंकार के दो पैर हैं।  अहंकार का पहला पैर है – मैंने जो किया, मैं जो था, मैंने जो बनाया – यानि ‘भूतकाल’ और अहंकार का दूसरा पैर है – मैं कल क्या कर सकता हूँ, मैं कल क्या करूंगा, मैं कल क्या बनूँगा, मैं कल क्या हो जाऊँगा – यानि ‘भविष्यकाल’।  इन दोनों पैरों पर अहंकार खड़ा होता है।  अगर इस भूतकाल और भविष्यकाल की चिंता हट जाय तो अहंकार गिर जाता है, यानि अगर तुम वर्तमान में आ जाओ तो इसके दोनों पैर गिर गए।  अगर तुम वर्तमान में जीने लगे तो अहंकार विसर्जित हो जाता है और इसका उल्टा भी सही है कि अगर तुम अहंकार को विसर्जित कर दो, अहंकार को छोड़ने का अभ्यास कर लो सद्गुरु के प्रति समर्पण के माध्यम से तो निश्चित रूप से तुम वर्तमान में जीने लगोगे।  भूत की चिंता ख़त्म हो जायेगी, भविष्य की चिंता ख़त्म हो जायेगी – इसके ख़त्म होते ही तुम वर्तमान में आ जाओगे और वर्तमान में आ जाना ही परमानन्द को प्राप्त कर लेना है।

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प्रेम प्रकृति प्रदत्त दान है

मेरे प्रेमियों, आपने कभी सोचने की चेष्ठा की कि परमात्मा के दिये हुए इस अद्भुत व बहुमूल्य जीवन को आपने नरक कैसे बना लिया है?  क्यों बना लिया है?  इसका बुनियादी कारण क्या है? प्रेमियों! अगर मनुष्य को परमात्मा के निकट लाना है, तो आप परमात्मा की बात करना बंद कर दो।  केवल मनुष्य को प्रेम के निकट लाइये। आपने जीवन में प्रेम का भाव भरिये।  अगर आपके जीवन में प्रेम की तरंगों का आगमन हो जाता है, तो परमात्मा नाचता हुआ आपके आँगन में प्रकट हो सकता है।

बड़े दुःख का विषय है कि हमारे पूर्वजों ने अभी तक प्रेम को विकसित करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया।  गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक हमारे समाज की सारी व्यवस्था प्रेम से विमुक्त है।  उस सारी व्यवस्था का केंद्र प्रेम को नहीं बनाया जा सका।  हमारा परिवार प्रेम का विरोधी है।  हमारा समाज प्रेम का विरोधी है।

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प्रेम

जब आपको परिवार में प्रेम नहीं मिलता है, तो आप उसे बहार खोजते हो। उस प्रेम को पाने की ललक ही आपको दूसरे परिवारों की ओर झाँकने को विवश करती है। इसके परिणामस्वरुप समाज में व्यभिचार, तरह-तरह की कुरीतियाँ पैदा हो जाती हैं। यह जो कुछ भी हमारे समाज में पैदा हो रहा है उसके लिये जिम्मेदार हैं – हम और हमारा परिवार क्योंकि हमारे परिवारों में प्रेम नहीं है। तो उसकी तृप्ति के लिये पीछे के रास्ते से दूसरे द्वार निर्मित होते हैं। इसीलिए समाज ने अपने स्वार्थ के लिये घोषित कर दिया कि तुम वेश्या का काम करो। जो अतृप्त आये तुम्हारे पास उसे तुम स्वीकार करो। मनु से लेकर उनके बाद के नीतिकारों ने वेश्या की संस्था को जिन्दा रखा। लेकिन इस व्यवस्था को बनाते समय यह ध्यान नहीं दिया गया कि क्यों न प्रेम के अंकुर को ही परिवारों में उगाया जाए। इसीलिए मैं जिस आध्यात्म की बात करना चाहता हूँ, वह इतना ही है कि आपके परिवार में, आपके ह्रदय में प्रेम के फूल खिलें और आपके चेहरे पर मुस्कान बिखरे।

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साक्षी साधना शिविर

साक्षी साधना शिविर

साक्षी साधना शिविर

Thought Power

The greatest discovery of our generation is that you can change your life and destiny by application of the science of thought power. Thought power is the greatest of all powers we possess.

The master secret of the ages is the marvelous, miracle making power found in the sub-conscious mind. In fact, your life becomes what you think. Great teachers down the ages have emphasized the importance of our mind and thought power. Buddha said, “The mind is everything, what you think, you become”. Ram Krishna Paramhansa, the great Indian mystic said: “By the mind one is bound, by the mind one is freed.” According to William James, the greatest discovery of our generation is that human beings can alter their life by altering their attitudes of mind. In this way, you can master your destiny by mastering your thoughts.

However, it is a matter of great misfortune that a vast majority of people don’t even know how to apply and use their thoughts – the master power of the mind. It is just as essential to know how to think correctly as it is to know how to speak or act correctly. It is even more painful to know the fact that people go to great lengths to avoid thoughts. As pointed out by Thomas Edison, “Only very few of people think, most of them think that they think but most of the people on this earth don’t even think of thinking”.

Courtesy:  ‘You Can Top ‘

अहंकार का विसर्जन

करने वाला वही और कराने वाला भी वही है।  उसके हाथ हजार हैं जबकि तुम तो उसके ‘हाथ’ भर हो।  तुम तो बांस की पोली पोंगरी हो।  जो स्वर निकल रहा है, जो ध्वनि निकल रही है, जो संगीत निकाल रहा है वह उसी का है।  लेकिन यह संभव तभी हो सकता है जब अहंकार का विसर्जन होना शुरू हो जाए।  गीता, कुरान, बाइबल का सार अमृत तत्व एक ही है अहंकार का विसर्जन।  अहंकार से मुक्ति ही धर्म है।

झुकना आसान नहीं है

जब तक सद्गुरु जीवित हैं तब तक तुम उसमे भगवान की अनुभूति करने में समर्थ नहीं हो पाते हो।  जब गुरु जिंदा होता है तब तुम उसकी संभावना नहीं देख पाते हो।  लेकिन जब गुरु पूर्ण हो जाता है, शरीर त्याग देता है, तब तुम मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हो।  वह पूजा निरर्थक है।  सद्गुरु जिंदा है, उसमे परमात्मा की सद्भावना करो, उसमे परमात्मा को देखो।  वही सद्गुरु साक्षात अनंत ऊर्जा को तुम्हारे भीतर प्रवाहित कर देगा।  यही आध्यात्म का विज्ञान है।  मेरे प्रेमियों, मूर्ति के सामने तुम झुक जाते हो बड़े आराम से क्योंकि तुम्हारे अहंकार को चोट नहीं लगती है।  तुम सोचते हो कि यह तो मूर्ति है, सब इसके सामने झुक रहे हैं।  मूर्ति के सामने झुकना बहुत आसान हो जाता है।  लेकिन जीवंत गुरु के सामने झुकना कठिन हो जाता है, क्योंकि अहंकार को थोड़ा चोट पहुँचती है।  झुकना आसान काम नहीं है।  दुनिया में सबसे कठिन काम झुकना है।  तुम सोचते हो कैसे झुकें इस आदमी के सामने जो मेरे जैसा ही तो है।  लेकिन झुके बिना दुनिया में कुछ मिलता नहीं है।  न तो इस जगत में और न ही उस जगत में।  इसीलिए गुरु सबसे पहले झुकने की कला सिखाता है तुम्हें।  अहंकार का विसर्जन करने की कला सिखाता है।

गुरु को चुन पाना बड़ा कठिन काम है।  बहुत से प्रेमी मुझसे पूछा करते हैं कि किसको गुरु मान लिया जाय।  मैं कहना चाहता हूँ कि गुरु का चयन कर पाना तुम्हारे लिये सम्भव नहीं है।  गुरु का चयन करने तुम चलोगे तो अपनी बुद्धि से ही चयन करोगे।

जिसका चयन करने तुम जा रहे हो, उसके बारे में निर्णय करोगे कि इसका आचरण ठीक है, इसकी वाणी ठीक है, इसका चाल चलन ठीक है या नहीं।  यानि तुम अपनी बुद्धि से गुरु के व्यक्तित्व का फैसला करोगे।  शिष्य अपने गुरु के व्यक्तित्व का निर्णय नहीं ले सकते है।  पहले ही चरण में विरोधाभास हो गया।  जब तुम अपने संस्कारों के मुताबिक अपनी बुद्धि का प्रयोग करोगे तो गुरु का चयन नहीं कर पाओगे।  जैसा कि अगर तुम जैन परिवार में पैदा हुए हो तो किसी ऐसे आदमी को ही गुरु मानने को तैयार होगे जो सूरज के डूबने से पहले ही खाना खा लेता हो।

अपनी बुद्धि की कसौटी से, अपने संस्कारों की कसौटी से गुरु को खोजोगे तो गुरु नहीं मिलेगा।  तुम गुरु का चयन नहीं कर सकते हो।  तुम केवल उपलब्ध रहो और उनके सान्निध्य में रहो।  तुम उनके साथ सत्संग करो, उनकी सुनो, उनके समीप जाओ।  उठते-बैठते, सुनते-सुनते सान्निध्य प्राप्त करते-करते तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम्हारा हृदय उस गुरु की ओर खींचता चला जा रहा है।  वह गुरु तुम्हारे हृदय पर छाने लगेगा और प्रेम घटित हो जाएगा।  तुम्हारे पैर अपने आप उसी गुरु की ओर बढ़ते चले जाएंगे और गुरु की कसौटी यही है।  जिस गुरु के सान्निध्य में रहने से तुम्हारे भीतर शांति व आनंद की बंसी बजने लगे वही तुम्हारा सद्गुरु है।  सद्गुरु तुम्हें स्वयं चुन लेता है।  तुम्हें केवल उपलब्ध रहना चाहिए।