वर्तमान में जीवन जीने का विज्ञान

अब वह मुर्दा लाश कहती है सम्राट विक्रमादित्य से, कि तुम बताओ इन तीनों युवकों में से उस युवती को किसे अपने पति के रूप में चयन करना चाहिये।    और उस मुर्दा लाश ने कहा कि यदि इसका उत्तर तुम्हारे भीतर आ गया है और तुमने उत्तर न दिया तो तुम तुरंत मर जाओगे और यदि इसका उत्तर तुम्हारे भीतर नहीं आया है तब उत्तर न दो तो कोई बात नहीं।  रजा भयभीत हुआ क्योंकि इस कहानी को सुनते-सुनते, इसके बारे में विचार करते-करते उसके प्राणों में एक उत्तर पैदा हो गया था।  अब विक्रमादित्य ने सोचा कि अगर मैं उत्तर नहीं देता हूँ तो मैं तुरंत मर जाऊँगा और उस फकीर ने कहा है कि तुम मौन रहना, तटस्थ रहना।  गलती हो गयी लेकिन मरने से तो अच्छा है कि उत्तर दे दूं और फिर आगे देखता हूँ कि क्या होता है।  उस राजा ने कहा कि मेरे विचार से जिस प्रेमी ने तंत्र विद्या से उसको जिन्दा किया वो जन्म देने वाला हो गया, वो तो पिता-तुल्य हो गया, और जिस प्रेमी ने उसकी अस्थियों को रोज गंगा में स्नान कराया उसने पुत्र की भूमिका निभायी, वह पुत्र तुल्य हो गया लेकिन तीसरा प्रेमी जो रोज मरघट पर धूनी रमाये अपनी प्रेमिका की प्रतीक्षा करता रहा वही असली प्रेमी है, उस युवती को उसे ही अपना पति चुनना चाहिये।  यह उत्तर देने के बाद जैसे ही राजा शांत हुआ, फकीर ने कहा तुमने फिर गलती कर दी और इसका परिणाम यह हुआ कि वह लाश उड़ी और उड़कर फिर वह वट वृक्ष से वैसे ही लटक गयी जैसे पहले लटकी थी।  कहते हैं, इस तरीके से पच्चीस बार सम्राट विक्रमादित्य को फिर से जाना पड़ा, उस वाट वृक्ष पर चढ़ना पड़ा और लाश को गिराकर लाना पड़ा।  फिर लाश को गिरता, फिर कंधे पर लेकर चलता, फिर कोई न कोई घटना होती।  इस तरह कि पच्चीस कथाएं हैं जिसे कि बैताल पच्चीसी कहा गया है।  और कहते हैं कि सम्राट सूरज उगने तक, सवेरे तक इसी काम में लगा रहा और अंत में पच्चीसवीं बार वह सफल हुआ कि साक्षी रह सके, तटस्थ रह सके, मौन रह सके, निर्विचार रह सके, सजग रह सके और लाश के द्वारा कही गयी बैटन में उलझ न सके।  पच्चीसवीं बार उसे सफलता मिली कि वर्तमान में जीने का अभ्यास उसे हो सका और कहते हैं कि फकीर ने कहा कि अब तुम्हें बुद्धत्व प्राप्त हो गया, अब तुम होश में जीने के अभ्यस्त हो गये। अब संसार कि ऐसी कोई सम्पदा नहीं है जो तुम्हें मिल नहीं सकती है।  अब तुम्हारे भीतर साक्षी भाव घट गया, दृष्ट भाव घट गया।
इस संसार में बहुत कुछ है जो तुम्हें भी उलझाये रहता है। वही आने वाला कल और सही बीता हुआ कल।  भूतकाल और भविष्यकाल। पूरा संसार मानो बाजार है जिसमें तुम उलझे पड़े हो।  अगर तुम्हें साक्षी कि तरह जीना आ जाये, घटनाओं को सिर्फ देखते हुए जीना आ जाये, तुम निर्णय मत दो, तुम उलझो नहीं, जो कुछ हो रहा है उसके दृष्टा बन जाओ, उसके साक्षी बन जाओ, तो साक्षी बनते ही तुम वर्तमान में जीने लगते हो और वर्तमान में जीना जैसे ही शुरू होता है वैसे ही भीतर का आनंद फूट पड़ता है।  भीतर आनंद के झरने फूट पड़ते हैं, ये साक्षी भाव की साधना है, इसी को हम कहते हैं ध्यान।  और संजीवनी क्रिया के माध्यम से, महामेधा क्रिया के माध्यम से हम आपको साक्षी की अवस्था में ले जाते हैं  और यह साधना – मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों के चक्कर काटने से नहीं अपने जीवन को साधने से होती है।  वर्तमान में रहने का अभ्यास करने से यह सिद्ध होता है।  तो पहला उपाय वर्तमान में जीने का साक्षी होकर जीना, दृष्टा होकर जीना, तटस्थ होकर जीना, चीजों को देखते रहना, ये समझना कि मैं कर्ता नहीं हूँ, मैं तो सिर्फ दृष्टा हूँ, जो कुछ भी हो रहा है मैं सिर्फ उसका देखने वाला हूँ करने वाला हूँ।  जब कर्ता भाव का विसर्जन हो जाता है, तब  आपके भीतर यह भाव भर जाता है कि सबकुछ तो इस अस्तित्व में हो रहा है, रोज-रोज कहता हूँ – रोटी खाते हो खून बन जाती है, गाय भूसा खाती है भूसा दूध बन जाता है।  इस संसार में जाड़ा-गर्मी-बरसात, दिन-रात, अंधकार-प्रकाश, सब-कुछ अपने हिसाब से आ रहा है – जा रहा है, आपकी कोई भूमिका नहीं है।  आपकी साँसें आ रही हैं, जा रही हैं, प्रकृति सन्देश दे रही है कि सबकुछ अस्तित्व में, अस्तित्व कि ऊर्जा से संचालित हो रहा है।  करोणों-अरबों ग्रह-नक्षत्र, सूर्य, चाँद, तारे इस ब्रम्हांड में अपनी धुरी पर घूम रहे हैं, कोई एक-दूसरे से टकराता नहीं है, एक नियम में यह अस्तित्व सबको नियंत्रित किये हुए है, सबको समाहित किये हुए है, सबकुछ स्वतः हो रहा है।  अगर तुम्हारे भीतर से यह भाव हट जाये कि तुम करने वाले हो तो जब तुम कर्ता नहीं रह जाते हो तो तुम साक्षी बन जाते हो।  तो हमेशा ये अभ्यास करो कि तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो, दृष्टा हो।  खाना खा रहे हो तो उस समय देखो कि ये शरीर खाना खा रहा है।  तुम शरीर नहीं हो, शरीर को खाना खाते हुये देखना अपने शरीर के बाहर खड़े होकर, ये साक्षी का अभ्यास है।  तुम मुझे सुन रहे हो, अपने शरीर के बाहर खड़े हो जाओ और देखो कि गुरुदेव बोल रहे हैं और तुम्हारा शरीर सुन रहा है और तुम दोनों को देख रहे हो, गुरुदेव को भी देख रहे हो।  जो भी – जितने भी कृत्य तुम करते हो उन सारे कृत्यों के प्रति तुम साक्षी हो जाओ तो साक्षी होते-होते, साक्षी का अभ्यास करते-करते तुम वर्तमान में जीने लगोगे।  तुम्हारे भीतर समर्पण घटित होगा।