हृदय खोलो, गुरु को जानो

गुरु का शरीर ध्यान का मूल है।  वही अनंत ऊर्जा और सारे आध्यात्म का सार है।  ऋषि-मनीषी भी कहते हैं कि उस ध्यान का मूल है – गुरु का शरीर।  गुरु के शरीर का ध्यान किए बिना कोई भी आध्यात्म की साधना पूरी नहीं होती है।  मैं बताना चाहता हूँ कि आज तक मैंने तपस्या या साधना नहीं की है।  यह केवल गुरु के प्रसाद का प्रतिफल है कि उनके स्मरण करने मात्र से ही मैं परम आनंद ध्यान में डूबने लगता हूँ।  गुरु का स्मरण बुद्धि से समझ में नहीं आएगा।  हृदय खोल कर गुरु की निगाहों में झाँको,  तब बात समझ में आ सकती है, कुछ परिवर्तन हो सकता है।  तब आपका रोआं-रोआं काँपने लग सकता है।  तब आपको लगेगा कि बुद्धि के परे भी कोई अनुभव हो सकता है, जहाँ तर्क शक्ति समाप्त हो जाती है और शक्ति क्षीण हो जाती है। “पूजा मूलं गुरोः पदम” कोई भी पूजा तब तक सार्थक नहीं होती है जब तक तुम्हारी पूजा में गुरु के चरणों का स्मरण न हो जाए।  “मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यम” – गुरु का वाक्य मंत्र का मूल है।  कितना भी मंत्र जपते रहो, कोई भी मंत्र तुम्हारे लिये फलीभूत नहीं हो सकता है, जब तक कि गुरु के मुंह से निकले वाक्य का तुम स्मरण नहीं करते हो, उनके शब्दों पर ध्यान नहीं देते हो और उनकी वाणी का सम्मान नहीं करते हो।  जो गुरु कहता है उस पर नहीं चलोगे तो कोई भी मंत्र सार्थक नहीं हो सकता है।  इसीलिए मैं कहता हूँ कि मंत्र जपना तब तक निरर्थक है, जब तक कि सद्गुरु के वचनों को आज्ञा स्वरूप धारण नहीं करते हो।  उसके अनुसार चलते नहीं हो।  “मोक्ष मूलं गुरोः कृपा” – कितनी भी तपस्या, कितनी भी साधना, कितना भी प्राणायाम, कितना भी शीर्षाशन करते रहो, लेकिन गुरु की कृपा के बिना आनंद रूपी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है।  इसीलिए ऋषियों मनीषियों ने कहा है कि –

शीर्षाशन करते रहो, लेकिन गुरु की कृपा के बिना आनंद रूपी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है।  इसीलिए ऋषियों मनीषियों ने कहा है कि –

गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरूरदेवो महेश्वर:,

गुरुः साक्षात परम्ब्रंह, तस्मै श्री गुरुवे नमः।

गुरु ब्रह्मा है जो पैदा करता है।  गुरु विष्णु है यानि जो पालन-पोषण करता है, संभालता है।  और गुरु ही महेश्वर हैं।  शिव का काम है संहार करना।  गुरु आपको ठोकता पीटता है, हिलाता डुलाता है।

“गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़त खोट,

भीतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट”

गुरु तो उसी शिव का रूप है।  अंदर से तुम्हारे हाथ को पकड़े रहता है, तुम्हारे कलेजे को थामे रहता है।  भीतर से तुम्हें संभाले रहता है और बाहर बाहर चोट भी करता है।  कभी डांटता है, कभी क्रोध दिखाने का भी अभिनय करता है।  तरह तरह के नाटक भी करता है।  तुम्हें डराता भी है।  क्योंकि संहार करने वाले शिव जैसा रूप भी तो उसे धारण करना है।  तुम्हारे दुर्गुणों को, तुम्हारी बुराइयों को जलाना है।  इस प्रकार वह शिव रूप है।  “गुरुः साक्षात परम्ब्रंह, तस्मै श्री गुरुवे नमः”।  वह साक्षात परमब्रम्ह है।  गुरु तो ब्रम्हा, विष्णु, महेश से भी परे है।  इनसे भी ऊपर है जहां से इनकी उत्पत्ति होती है, इनका उद्भव होता है।  इस अनंत ऊर्जा का जिसे तुम साक्षात ब्रम्ह कहते हो, परम्ब्रंह कहते हो, वही सब कुछ है।  उसके अलावा कुछ है ही नहीं।  “एको ब्रम्ह द्वितीयोनास्ति”।  ऋषि कहते हैं कि गुरु ब्रम्हा ही नहीं, वह महेश ही नहीं, वह विष्णु ही नहीं है, वह तो इन सबसे परे साक्षात परम्ब्रंह है।  वह अनंत ऊर्जा का साक्षात पिण्ड भी है।  यदि तुम सद्गुरु को ऐसा देखने लगोगे तो तुम्हारे भीतर विस्फोट होने लगेगा और तुम शिष्य हो जाओगे।  शिष्य होने की एक ही कसौटी है कि तुम अपने सद्गुरु में साक्षात परम्ब्रंह हो देखने लगो।  यही पैमाना है कि जब तुम सद्गुरु में तुम्हें परम्ब्रंह दिखाई पड़ने लगे तो समझो कि तुम्हारे भीतर शिष्यत्व की महाक्रांति घटित होने लगी है।  यानि तुम शिष्य होने लगे हो।  मैं हमेशा कहता हूँ कि शिष्यत्व को प्राप्त हो जाना ही धर्म है।

Advertisement

एक उत्तर दें

Please log in using one of these methods to post your comment:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s