प्रेम प्रकृति प्रदत्त दान है

मेरे प्रेमियों, आपने कभी सोचने की चेष्ठा की कि परमात्मा के दिये हुए इस अद्भुत व बहुमूल्य जीवन को आपने नरक कैसे बना लिया है?  क्यों बना लिया है?  इसका बुनियादी कारण क्या है? प्रेमियों! अगर मनुष्य को परमात्मा के निकट लाना है, तो आप परमात्मा की बात करना बंद कर दो।  केवल मनुष्य को प्रेम के निकट लाइये। आपने जीवन में प्रेम का भाव भरिये।  अगर आपके जीवन में प्रेम की तरंगों का आगमन हो जाता है, तो परमात्मा नाचता हुआ आपके आँगन में प्रकट हो सकता है।

बड़े दुःख का विषय है कि हमारे पूर्वजों ने अभी तक प्रेम को विकसित करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया।  गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक हमारे समाज की सारी व्यवस्था प्रेम से विमुक्त है।  उस सारी व्यवस्था का केंद्र प्रेम को नहीं बनाया जा सका।  हमारा परिवार प्रेम का विरोधी है।  हमारा समाज प्रेम का विरोधी है।  आपके समाज में, मनु से लेकर आज तक के सभी नीतिकार प्रेम के खिलाफ खड़े हुए हैं।  कोई प्रेम की बात करने ही नहीं देता, कोई प्रेम का भाव आपके प्राणों में भरने ही नहीं देता और प्रेम जो जीवन का केंद्र है वह आपके जीवन में नहीं आ पाता।  परिवार की व्यवस्था और परिवार जिसे प्रेम पर आधारित होना चाहिए वह खड़ा है विवाह पर।  विवाह की नींव पर आपका प्रेम खड़ा है।  जबकि वह खड़ा होना चाहिए प्रेम के तत्व पर।  अगर दो प्राणियों में प्रेम हो, तो विवाह पैदा हो सकता है।  लेकिन दो लोगों को बांध दिया जाये विवाह के बंधन में तो उससे प्रेम पैदा हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है।  लेकिन हमारे समाज के चिंतकों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।  विवाह तो हमारे समाज की ईजाद की हुई व्यवस्था है।  जबकि प्रेम तो परमात्मा का, प्रकृति का दिया हुआ दान है।

मनोवैज्ञानिकों ने कहा है कि युवक-युवती को विवाह के बंधन में बांध कर हम समझने लगते हैं कि दोनों में प्रेम हो गया है, तो वह सच्चे अर्थों में प्रेम नहीं होता है।  वह मोह का भाव है, जो शारीरिक आकर्षण के कारण पैदा हो जाता है।  और आपको लगता है कि प्रेम हो गया।  जबकि वास्तव में वह प्रेम नहीं होता है।  उसमें वह मनोभाव ही नहीं होता है, जिससे दो प्राण मिलकर इतना एक हो जायें जैसे कि उस मिलन को परमात्मा का अनुभव पैदा हो जाये।  मनुष्यता का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उनके पूरे जीवन में कभी भी प्रेम की विद्युत तरंगें पैदा ही नहीं हो पाती हैं।  इतना बहुमूल्य जीवन और उसमें प्रेम की अद्भुत तरंगों का अनुभव न हो, सोचो, ऐसा क्यों?  दो व्यक्तियों को एक साथ बांध देने से प्रेम नहीं घृणा पैदा होती है।

एक बार बादशाह नादिरशाह को एक युवती से प्रेम हो गया।  उसने उस युवती को प्रेम करने के लिये, शाही फरमान जारी कर दिया।  लेकिन नादिरशाह को लोगों ने बताया, हुजूर! उस युवती के चक्कर में आप क्यों पड़ रहे हैं?  सच्चाई तो यह है कि वह युवती किसी दूसरे व्यक्ति को प्रेम करती है।  नादिरशाह ने कहा कि ये मेरा हुक्म है, वजीर को बुलाया जाये।  सभी विद्वानों से राय ली जाये।  किसी भी प्रकार से उस युवक और युवती के प्रेम को समाप्त किया जाये।  देश के सभी विद्वानों से विचार-विमर्श और मंत्रणा करने के बाद वजीरों ने नादिरशाह को सुझाव दिया कि उस युवक व युवती को एक साथ बाँध दिया जाये। एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन-चार दिन बीते।  एक-दूसरे के शरीर से दोनों बंधे रहे।  उन दोनों को इतनी घृणा हो गयी एक-दूसरे के शरीर से कि सांस न ले सके।  मलमूत्र, सांस लेना, एक-दूसरे को झेल पाना ही मुश्किल हो गया।  चार दिन बाद दोनों को मुक्त कर दिया गया।  कहते हैं जब उन दोनों को बंधन मुक्त कर दिया गया, तो दोनों एक-दूसरे से दूर भागने लगे।  दोनों को एक-दूसरे के शरीर से इतनी घृणा हो गयी कि फिर कभी उन्होंने एक-दूसरे से मिलना ही नहीं चाह।  जब जबरदस्ती दो लोगों को बाँधने की चेष्ठा की जाती है, तो वह स्वाभाविक रूप से घृणा का भाव पैदा करती है।

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