काम क्रोध पर विजय
ऐसी ही तुम्हारी इन्द्रियां हैं। जिनसे तुम्हारी ऊर्जा का विनाश होता है उन इन्द्रियों का ज्ञान तुम्हें प्राप्त हो जाये तो वे ही इन्द्रियां तुम्हारी गुलाम होने लगती हैं। तुम दबाओगे, तो दबाने से कुछ नहीं होगा। मनोवैज्ञानिकों ने कहा है कि जो व्यक्ति रोज-रोज छोटी-छोटी बातों पर क्रोध करता है उसका क्रोध निकल जाता है। ऐसा व्यक्ति कभी जघन्य अपराध नहीं कर सकता। जो व्यक्ति बहुत भला दिखता है, रोज-रोज क्रोध नहीं करता, क्रोध को इकठ्ठा करता रहता है, ऐसा व्यक्ति खतरनाक होता है। क्रोध ऊर्जा है जो आपके शरीर में बिजली पैदा करने की अद्भुत शक्ति रखती है। वही आपको परमात्मा के पास ले जा सकती है। लेकिन अगर आपने क्रोध के रूप में जीवन ऊर्जा को प्रकट कर दिया तो रोज-रोज आपकी जीवन ऊर्जा उसमें ही नष्ट होती चली जायेगी। आप गौरी शंकर के शिखर तक नहीं पहुँच पाओगे, क्योंकि उस ऊर्जा से आप वंचित होते चले जाओगे। यही तो ‘लीकेज पॉइंट’ है जो व्यक्ति रोज-रोज क्रोध करता है, जो रोज-रोज ईर्ष्या में जल रहा है, रोज काम ज्वाला में झुलस रहा है ये इन्द्रियां रोज-रोज उसकी ऊर्जा का क्षरण करती चली जाती हैं। यह रोज क्रोध बहाता है हर रोज उसकी ऊर्जा का क्षरण होता रहता है। उसकी ऊर्जा रूपांतरित होकर कभी क्षमा का रूप धारण नहीं कर सकती। जब ऊर्जा इकट्ठी होती है तब उस ऊर्जा का रूपांतरण होता है और वह क्रोध के स्थान पर क्षमा का रूप लेती है। क्षमा करने का विज्ञान उसके भीतर से प्रकट नहीं हो सकता। हर बात पर किसी व्यक्ति से घृणा में बहती चली जाती है। प्रेम की ऊर्जा तभी पैदा हो सकती है जब आपके भीतर घृणा का भाव कभी पैदा हो ही नहीं।
लोभ की वृत्ति, लोभ का भाव जो आपके भीतर पैदा हो जाता है यह भी आपकी ऊर्जा का क्षरण करता है। यह आपको आध्यत्मिक नहीं होने देता। लोभ की पूर्ति के लिए आप काम करो या मत करो, लोभ का भाव भीतर आते ही ऊर्जा नष्ट होनी शुरू हो जाती है। ऐसे लोग कभी दान ऊर्जा का विकास नहीं कर सकते हैं। इन सब वृत्तियों के कारण आपकी अद्भुत जीवन ऊर्जा जो आपको अद्भुत शांति व आनंद रुपी परमात्मा का साक्षात्कार करा सकती है, वह आपके भीतर इकठ्ठा ही नहीं हो पति। आपके चेहरे पर इसीलिए मुस्कान नहीं दिखती है क्योंकि ऊर्जा आप संग्रहीत होने ही नहीं देते हो।
आध्यात्मिक विचार व चिंतन, भोग और दमन के आस-पास केन्द्रित रहा है। साधू-सन्यासी कहते हैं कि भोग-विलास छोड़ो। इनका त्याग करो, इन्द्रियां आपको माया-जाल में फंसाती हैं। काम,क्रोध, मोह, लोभ को छोड़ दो आपको परमात्मा मिलेगा। आप पहले अपनी ऊर्जा को नष्ट होने से तो बचाओ। और दूसरे दार्शनिक कहते हैं, “यावत जीवेतु, सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत” बड़ी मुश्किल से यह जीवन मिला है। यदि काम, क्रोध, लोभ और मोह को छोड़ दिया तो जीना ही बेकार है फिर किस लिए जीयें। जब काम की मौज न ले सके। लोभ की मौज न ले सके तो फिर जीना किसलिए?
एक अति है – भोग, दूसरी अति है दमन। भोग और दमन के रास्ते से आज तक इन्द्रियों पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर पाया है। भोग व दमन के रास्ते से ऋषि – मुनि भी साधना करते रहते हैं। काम, लोभ, मोह को जितना ही दबाते गये उतना ही अप्सराएँ उलझ-उलझ कर चित्त में आती रहीं। एक दिन एक सज्जन मुझसे पूछ रहे थे गुरूजी, ऋषियों-मनीषियों को अप्सराएँ बहुत तंग करती थीं और आप जैसे जो आध्यात्मिक लोग हैं आप लोगों के सामने क्या थी, क्या अप्सराएँ नहीं प्रकट होती हैं? लगता है पुराने ज़माने में अप्सराएँ साधू-संतों और ऋषियों के पास आती। आजकल वे अप्सराएँ गायब हो गयी हैं? मैंने कहा, अप्सराएँ गायब नहीं हुई हैं, वह ऋषि-मुनि गायब हो गये हैं। ऋषि-मुनि बठे रहते थे जंगलों में और अपने चित्त जितना दबाते थे कामिनी को, जितना दबाते थे कंचन को, जितना दबाते थे स्त्री के भाव को उतनी ही स्त्री उनके चित्त में अप्सराएँ बन कर प्रकट हुआ करती थीं। कोई वास्तविक अप्सराएँ प्रकट नहीं होती थी। लेकिन वह इतना दमन करते थे की उनके मनोसृजन से युवतियां, अप्सराएँ प्रकट हो जाया करती थीं। मन बड़ा होशियार है और जब आप भोग की क्रियाओं में लग जाओगे यानि सभी इन्द्रियों से भोग भोगना शुरू कर दोगे तो आपका शरीर ऐसी बाल्टी बन जायेगा जिसमें छेद ही छेद होंगे। एक बूँद पानी भी आपके हाथ नहीं आयेगा। आप भोग की प्रवित्ति को अपना लोगे, तो सभी इन्द्रियों के माध्यम से आपके जीवन से ऊर्जा निकलती चली जायेगी। अगर दमन करोगे तो आपके जीवन में ऊर्जा का क्या हाल होगा? आपका चित्त टूटेगा, नष्ट होगा। कोई उपाय नहीं।
इन्द्रियों को जान लेना ही उपाय है और इन्द्रियों को जानने का एक ही सूत्र है जिसे भगवन श्री कृष्ण ने खूब कहा। कोई उस सूत्र पर ध्यान नहीं देता है वह सूत्र है – महासाक्षी होने का, परम आनंद को प्राप्त हो जाओगे। दूसरे आप इन्द्रियों को भी जान लोगे और उनसे परे भी पहुँच जाओगे।
इस जगत में कोई भी ज्ञान बिना ध्यान के प्राप्त नहीं होता। ध्यान करने का अर्थ है साक्षी बन जाना, दृष्ट हो जाना। क्रोध आता है, तो आप उसके साथ एकात्मकता को प्राप्त कर लेते हो, क्रोध में आ जाते हो। काम का आवेग चढ़ता है, तो काम के प्रतिरूप आप हो जाते हो। काम के साथ तुम्हारी एकरूपता बन जाती है। ध्यान करना है तो आप अपने को उससे अलग कर लो। देखने वाले बन जाओ, दृष्टा बन जाओ। जैसे आप देखो की इस शरीर में क्रोध बढ़ रहा है तो इस शरीर से अपने को पृथक करके खड़े हो जाओ। आप साक्षी होकर देखो। आपको लगेगा कि आप अपने शरीर के ही दृष्टा बनकर विचित्र अनुभव से गुजर रहे हो। आपक्स अभ्यास ही उसके ऊपर विजय करा देगा। आपकी आत्मा जो बैठी हुई है, वह साक्षी बनकर आपके क्रोध कि वृत्ति को देखेगी। इतना भर होश में आ जायें, देखते-देखते ही क्रोध विलीन होने लगेगा। क्रोध कि ऊर्जा जो कि नष्ट हो जाती है वह ऊर्जा क्षरण होने से बच जायेगी। वह ऊर्जा परमात्मा गौरी शंकर शिखर पर चढ़ने के प्रयोग में काम आ सकेगी। यह जो कुण्डलिनी शक्ति आपके मूलाधार क्षेत्र में बैठी रहती है, उस कुण्डलिनी को ऊपर की और सक्रिय करने के लिए ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। ऊर्जावान व्यक्ति जब बैठता है और अपनी ऊर्जा व शक्ति को ध्यान के माध्यम से सक्रिय करता है, तब कुण्डलिनी आंदोलित होने लगती है।
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