Category Archives: प्रवचन

प्रेम मांगो नहीं लुटाओ

जो प्रेम की मांग करता है, आज तक उसने इस दुनिया में प्रेम नहीं पाया है।  प्रेम पाने का एक ही उपाय है – प्रेम लुटाओ।  आप किसी दूसरे व्यक्ति की आँखों में प्रेम की भावना से झांकोगे, तो दूसरी ओर से घृणा नहीं, प्रेम की सरिता बहेगी।  अगर आप ह्रदय की गहराई से किसी का हाथ पकड़ोगे तो दूसरे के हाथ से भी प्रेम की ऊष्मा आएगी जिसका आपके हाथों के द्वारा अनुभव भी होगा।  लेकिन आपके प्रेम में कांटे ही कांटे हैं, फूल नहीं।  क्योंकि अपने अहंकार का विसर्जन नहीं किया है।  फिर भी मैं कहता हूँ कि यदि प्रेम में कांटे भी हों, तो प्रेम गुलाब के फूल जैसा है। काँटों में ही फूलों का मजा होता है।  जब प्रेम का भाव जागता है तो आप थोड़ा शुभ की ओर कदम बढ़ाते हो, थोड़ा सौन्दर्य कि ओर कदम बढ़ाते हो, थोड़ा सजते हो, श्रृंगार करते हो और आपके भीतर भी थोड़ी दिव्यता का भाव आने लगता है।

Advertisement

वर्तमान में जीवन जीने का विज्ञान

इस संसार में बहुत कुछ है जो तुम्हें भी उलझाये रहता है। वही आने वाला कल और वही बीता हुआ कल।  भूतकाल और भविष्यकाल। पूरा संसार मानो बाजार है जिसमें तुम उलझे पड़े हो।  अगर तुम्हें साक्षी की तरह जीना आ जाये, घटनाओं को सिर्फ देखते हुए जीना आ जाये, तुम निर्णय मत दो, तुम उलझो नहीं, जो कुछ हो रहा है उसके दृष्टा बन जाओ, उसके साक्षी बन जाओ, तो साक्षी बनते ही तुम वर्तमान में जीने लगते हो और वर्तमान में जीना जैसे ही शुरू होता है वैसे ही भीतर का आनंद फूट पड़ता है।  भीतर आनंद के झरने फूट पड़ते हैं, ये साक्षी भाव की साधना है, इसी को हम कहते हैं ध्यान।  और संजीवनी क्रिया के माध्यम से, महामेधा क्रिया के माध्यम से हम आपको साक्षी की अवस्था में ले जाते हैं  और यह साधना – मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों के चक्कर काटने से नहीं अपने जीवन को साधने से होती है।  वर्तमान में रहने का अभ्यास करने से यह सिद्ध होता है।  तो पहला उपाय वर्तमान में जीने का साक्षी होकर जीना, दृष्टा होकर जीना, तटस्थ होकर जीना, चीजों को देखते रहना, ये समझना कि मैं कर्ता नहीं हूँ, मैं तो सिर्फ दृष्टा हूँ, जो कुछ भी हो रहा है मैं सिर्फ उसका देखने वाला हूँ करने वाला हूँ।  जब कर्ता भाव का विसर्जन हो जाता है, तब  आपके भीतर यह भाव भर जाता है कि सबकुछ तो इस अस्तित्व में हो रहा है, रोज-रोज कहता हूँ – रोटी खाते हो खून बन जाती है, गाय भूसा खाती है भूसा दूध बन जाता है।  इस संसार में जाड़ा-गर्मी-बरसात, दिन-रात, अंधकार-प्रकाश, सब-कुछ अपने हिसाब से आ रहा है – जा रहा है, आपकी कोई भूमिका नहीं है।  आपकी साँसें आ रही हैं, जा रही हैं, प्रकृति सन्देश दे रही है कि सबकुछ अस्तित्व में, अस्तित्व कि ऊर्जा से संचालित हो रहा है।  करोणों-अरबों ग्रह-नक्षत्र, सूर्य, चाँद, तारे इस ब्रम्हांड में अपनी धुरी पर घूम रहे हैं, कोई एक-दूसरे से टकराता नहीं है, एक नियम में यह अस्तित्व सबको नियंत्रित किये हुए है, सबको समाहित किये हुए है, सबकुछ स्वतः हो रहा है।  अगर तुम्हारे भीतर से यह भाव हट जाये कि तुम करने वाले हो तो जब तुम कर्ता नहीं रह जाते हो तो तुम साक्षी बन जाते हो।  तो हमेशा ये अभ्यास करो कि तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो, दृष्टा हो।  खाना खा रहे हो तो उस समय देखो कि ये शरीर खाना खा रहा है।  तुम शरीर नहीं हो, शरीर को खाना खाते हुये देखना अपने शरीर के बाहर खड़े होकर, ये साक्षी का अभ्यास है।  तुम मुझे सुन रहे हो, अपने शरीर के बाहर खड़े हो जाओ और देखो कि गुरुदेव बोल रहे हैं और तुम्हारा शरीर सुन रहा है और तुम दोनों को देख रहे हो, गुरुदेव को भी देख रहे हो।  जो भी – जितने भी कृत्य तुम करते हो उन सारे कृत्यों के प्रति तुम साक्षी हो जाओ तो साक्षी होते-होते, साक्षी का अभ्यास करते-करते तुम वर्तमान में जीने लगोगे।  तुम्हारे भीतर समर्पण घटित होगा।

प्रेम प्रकृति प्रदत्त दान है

मेरे प्रेमियों, आपने कभी सोचने की चेष्ठा की कि परमात्मा के दिये हुए इस अद्भुत व बहुमूल्य जीवन को आपने नरक कैसे बना लिया है?  क्यों बना लिया है?  इसका बुनियादी कारण क्या है? प्रेमियों! अगर मनुष्य को परमात्मा के निकट लाना है, तो आप परमात्मा की बात करना बंद कर दो।  केवल मनुष्य को प्रेम के निकट लाइये। आपने जीवन में प्रेम का भाव भरिये।  अगर आपके जीवन में प्रेम की तरंगों का आगमन हो जाता है, तो परमात्मा नाचता हुआ आपके आँगन में प्रकट हो सकता है।

बड़े दुःख का विषय है कि हमारे पूर्वजों ने अभी तक प्रेम को विकसित करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया।  गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक हमारे समाज की सारी व्यवस्था प्रेम से विमुक्त है।  उस सारी व्यवस्था का केंद्र प्रेम को नहीं बनाया जा सका।  हमारा परिवार प्रेम का विरोधी है।  हमारा समाज प्रेम का विरोधी है।

आगे पढ़िये …

साक्षी साधना शिविर

साक्षी साधना शिविर

साक्षी साधना शिविर

झुकना आसान नहीं है

जब तक सद्गुरु जीवित हैं तब तक तुम उसमे भगवान की अनुभूति करने में समर्थ नहीं हो पाते हो।  जब गुरु जिंदा होता है तब तुम उसकी संभावना नहीं देख पाते हो।  लेकिन जब गुरु पूर्ण हो जाता है, शरीर त्याग देता है, तब तुम मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हो।  वह पूजा निरर्थक है।  सद्गुरु जिंदा है, उसमे परमात्मा की सद्भावना करो, उसमे परमात्मा को देखो।  वही सद्गुरु साक्षात अनंत ऊर्जा को तुम्हारे भीतर प्रवाहित कर देगा।  यही आध्यात्म का विज्ञान है।  मेरे प्रेमियों, मूर्ति के सामने तुम झुक जाते हो बड़े आराम से क्योंकि तुम्हारे अहंकार को चोट नहीं लगती है।  तुम सोचते हो कि यह तो मूर्ति है, सब इसके सामने झुक रहे हैं।  मूर्ति के सामने झुकना बहुत आसान हो जाता है।  लेकिन जीवंत गुरु के सामने झुकना कठिन हो जाता है, क्योंकि अहंकार को थोड़ा चोट पहुँचती है।  झुकना आसान काम नहीं है।  दुनिया में सबसे कठिन काम झुकना है।  तुम सोचते हो कैसे झुकें इस आदमी के सामने जो मेरे जैसा ही तो है।  लेकिन झुके बिना दुनिया में कुछ मिलता नहीं है।  न तो इस जगत में और न ही उस जगत में।  इसीलिए गुरु सबसे पहले झुकने की कला सिखाता है तुम्हें।  अहंकार का विसर्जन करने की कला सिखाता है।

गुरु को चुन पाना बड़ा कठिन काम है।  बहुत से प्रेमी मुझसे पूछा करते हैं कि किसको गुरु मान लिया जाय।  मैं कहना चाहता हूँ कि गुरु का चयन कर पाना तुम्हारे लिये सम्भव नहीं है।  गुरु का चयन करने तुम चलोगे तो अपनी बुद्धि से ही चयन करोगे।

जिसका चयन करने तुम जा रहे हो, उसके बारे में निर्णय करोगे कि इसका आचरण ठीक है, इसकी वाणी ठीक है, इसका चाल चलन ठीक है या नहीं।  यानि तुम अपनी बुद्धि से गुरु के व्यक्तित्व का फैसला करोगे।  शिष्य अपने गुरु के व्यक्तित्व का निर्णय नहीं ले सकते है।  पहले ही चरण में विरोधाभास हो गया।  जब तुम अपने संस्कारों के मुताबिक अपनी बुद्धि का प्रयोग करोगे तो गुरु का चयन नहीं कर पाओगे।  जैसा कि अगर तुम जैन परिवार में पैदा हुए हो तो किसी ऐसे आदमी को ही गुरु मानने को तैयार होगे जो सूरज के डूबने से पहले ही खाना खा लेता हो।

अपनी बुद्धि की कसौटी से, अपने संस्कारों की कसौटी से गुरु को खोजोगे तो गुरु नहीं मिलेगा।  तुम गुरु का चयन नहीं कर सकते हो।  तुम केवल उपलब्ध रहो और उनके सान्निध्य में रहो।  तुम उनके साथ सत्संग करो, उनकी सुनो, उनके समीप जाओ।  उठते-बैठते, सुनते-सुनते सान्निध्य प्राप्त करते-करते तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम्हारा हृदय उस गुरु की ओर खींचता चला जा रहा है।  वह गुरु तुम्हारे हृदय पर छाने लगेगा और प्रेम घटित हो जाएगा।  तुम्हारे पैर अपने आप उसी गुरु की ओर बढ़ते चले जाएंगे और गुरु की कसौटी यही है।  जिस गुरु के सान्निध्य में रहने से तुम्हारे भीतर शांति व आनंद की बंसी बजने लगे वही तुम्हारा सद्गुरु है।  सद्गुरु तुम्हें स्वयं चुन लेता है।  तुम्हें केवल उपलब्ध रहना चाहिए।

2012 in review

The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2012 annual report for this blog.

Here’s an excerpt:

600 people reached the top of Mt. Everest in 2012. This blog got about 5,800 views in 2012. If every person who reached the top of Mt. Everest viewed this blog, it would have taken 10 years to get that many views.

Click here to see the complete report.

गुरु और शिष्य का संबंध बनता है – श्रद्धा व समर्पण से

ज्ञान के आकर्षण के कारण गुरु के प्रति तुम्हारे हृदय में आदर का भाव बनता है।  महीने, दो महीने बाद संभव है, तुम्हें पता चले कि तुम्हारा गुरु तो इतना ज्ञानी सचमुच में नहीं है, जितना तुम समझते थे, तो तुम्हारा आदर कम हो जाएगा, आदर क्षीण हो जायेगा।  अगर तुमने देखा कि तुम्हारा गुरु बड़ा तपस्वी है, योग करता है, प्राणायाम करता है और इसीलिए तुम्हारे चित्त में गुरु के प्रति आकर्षण पैदा हो गया तो तुम समझोगे कि तुम्हारा गुरु बड़ा ज्ञानी है।  लेकिन महीने दो महीने बाद तुम्हें पता चले कि कोई खास तपस्या नहीं, कोई खास साधना नहीं है, गुरु शीर्षाशन करना ही नहीं जानता है।  जिस योग और साधना के कारण गुरु के प्रति आदर था तुम्हारे चित्त में, वह आदर का भाव तुम्हारे भीतर से चला जायेगा।

इस तरह छोटे-मोटे जो आदर के भाव होते हैं उससे गुरु पैदा नहीं होता है तुम्हारे जीवन में।  गुरु पैदा होता है – श्रद्धा से।  श्रद्धा किसी कारण से पैदा नहीं होती है।  जब हृदय का हृदय से मेल होता है तभी किसी के प्रति श्रद्धा अकारण पैदा होती है।

जब हृदय का संबंध गुरु से बन जाता है, जब आत्मा का संबंध गुरु से हो जाता है तब गुरु और शिष्य का संबंध शुरू हो जाता है।  वह गुरु और शिष्य के बीच का संबंध होता है।  शेष सारे संबंध कितने ही गहरे क्यों न हों, वे मन के और शरीर के होते हैं।  बाप-बेटे का संबंध शरीर से ज्यादा गहरा संबंध नहीं है।  तुम्हारे अस्तित्व के तीन तल हैं – शरीर का तल, मन का तल, और सबसे सूक्ष्म आत्मा का तल।  ये संबंध तीन तल पर होते हैं।

दुनिया में सारे संबंध जैसे – बाप बेटे का संबंध, पति पत्नी का संबंध या भाई बहन का संबंध हो, शरीर से बनने वाले संबंध हैं।  लेकिन तुम्हारे और गुरु के बीच का संबंध शरीर के तल का नहीं है, मन के तल का संबंध नहीं है।  ये तो आत्मा का आत्मा से, हृदय का हृदय से उत्पन्न होने वाला संबंध है।  तभी तो सबको छोड़कर उनके चरणों में समर्पण कर देते हो।

जो तुम बेटे के लिये नहीं कर सकते, भाई बहन के लिये नहीं कर सकते, वह सब तुम गुरु के लिये कर सकते हो।  मैं उससे भी अद्भुत बात बताता हूँ कि जो माँ-बाप बेटे के लिये नहीं कर सकता है जो भाई बहन एक दूसरे के लिये नहीं कर सकते हैं, उससे भी कई गुणा अधिक, अनंत गुणा ज्यादा, क्षण-प्रतिक्षण गुरु शिष्य के प्रति करने के लिये तत्पर रहता है।  गुरु चाहता है कि मेरे प्रिय शिष्य को सारी सम्पदा मिल जाय।  वह बांटने के लिये, झोली भरने के लिये सदा तैयार रहता है।  गुरु तो एड़ी चोटी एक कर देता है, पसीना बहा देता है कि मेरी सारी सम्पदा मेरे प्रिय शिष्य को मिल जाय।  मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरे शिष्य को मिल जाय।

यही गुरु कि करुणा है, यही गुरु का गुरुत्व है और यही गुरु कि महिमा है।  वह अपना सब कुछ चौबीस घण्टे अपने प्रिय शिष्य में उलेड़ने को तत्पर रहता है।  इसलिए तुम्हें ठोकता पीटता है, संभालता है, सब कुछ करता है कि कैसे अपने को तुम्हारे भीतर उलेड़ दे?  गुरु देता है तो छोटी-मोटी चीज नहीं देता है कि-

“गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान,

तीन लोक की सम्पदा, सो दे दीन्ही दान।”

गुरु के समान देने वाला है ही नहीं।  ब्रम्हा, विष्णु, महेश भगवान भी नहीं दे सकते है।  कोई नहीं दे सकता।  केवल स्वामी सुदर्शनाचार्य दे सकते हैं।  आत्मा दे दी, अपने प्राण दे दिये, और कहा – बेटे अपना शरीर भी तुम्हें दे देता हूँ।  अब और देने को क्या बचता है? वे तो साक्षात परमात्मा हैं।  यह मत सोचना कि गुरु तुम्हारे जैसा है, क्योंकि उसे भी पसीना है, उसे भी बुखार आता है, उसे भी सर्दी-जुकाम होता है और उसे भी भूख-प्यास लगती है।  फिर तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं बात आ ही जाती है कि गुरु को ब्रम्हा, विष्णु, महेश मानना मूर्खता की बातें हैं।  क्योंकि वह भी तुम्हारे जैसा चलता है, तुम्हारे जैसे पहनता है और तुम्हारे जैसा बोलता है।  लेकिन तुम्हारे मन में गुरु को परमात्मा स्वीकार करने का भाव बन गया तो फिर सब कुछ सारा वेद, सारा पुराण, सारी बाइबिल, सारी कुरान सब तुम्हारे भीतर उतार जायेगी।

हृदय खोलो, गुरु को जानो

मेरे प्रेमियों, जब भी मैं इस व्यास पीठ पर बैठता हूँ तो मेरे हृदय पर, प्राणों पर, मेरी आत्मा पर और मेरे शरीर पर सद्गुरु देव स्वामी सुदर्शनाचार्य की अद्भुत कृपा बरसने लगती है।  और मैं कहूँ कि उस समय “मैं” होता ही नहीं हूँ।  उनकी कृपा, उनका आशीष, और साक्षात उनकी आत्मा मेरे अंदर भर जाती है।  मेरी आँखों से प्रेम के, आनंद के आँसू झरने लगते हैं।  मेरा कंठ अवरूद्ध हो जाता है।  बोलने की चेष्ठा, बोलने का साहस करने मे बड़ा परिश्रम करना पड़ता है।  यानि जब तुम भाव से भर जाते हो, जब तुम्हारा हृदय काँप जाता है तो वाणी निकलने को तैयार नहीं होती है।  यह अद्भुत राज है, गुरु-शिष्य के बीच के सम्बन्धों का।  इसे कोई तर्क से, बुद्धि से नहीं समझ सकता है।  लेकिन तुममे से कुछ लोग इसे समझते हैं।  तुम जब कभी मेरे पास आकर अपनी निगाहों से मुझे देखते हो तो आपकी निगाहें मेरी निगाहों पर पड़ती हैं, किन्तु तुमसे बोला कुछ नहीं जाता।  तुम्हारे आँसू झरने लगते हैं।  तुम्हारे कुछ कहे बिना ही तुम्हारे प्रेम के, आनंद के, आँसू सारी बातें कह देते हैं।  तुम्हारी सारी पीड़ा को व्यक्त कर जाते हैं। ऐसा कुछ मुझे अक्सर देखने को मिलता है।  जिस क्षण मैं स्वामी सुदर्शनाचार्य का स्मरण भर कर लेता हूँ तो कुछ अद्भुत घटना घटने लगती है।  मैं तुम्हें हृदय से बताना चाहता हूँ कि जो कुछ इस स्थल पर घटित हो रहा है, वह स्वामी सुदर्शनाचार्य के आशीष का ही प्रतिफल है।  उनके चरणों मेन बैठने का मेरा एक ही अनुभव है कि सद्गुरु का आशीष अनंत आनंद की वर्षा करता है।   …..

दर्शन करने की कला

जो असाधारण है, जो परम है, जो सारे अध्यात्म का प्राण है, उस सन्देश को शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।  उसका अनुभव तभी किया जा सकता है जब आपके भीतर मौन रहने का अभ्यास पैदा हो जाय, मौन रहने की कला आपके भीतर आ जाय, मौन होना आपको आ जाय।  धर्म के नाम पर मैं सिर्फ मौन का संगीत आपके भीतर पैदा करना चाहता हूँ।  शब्दों की बड़ बड़ से कोई काम होने वाला नहीं है।  जब तक मौन का संगीत आपके भीतर पैदा न हो, जब तक चौबीस घंटे अधिक से अधिक मौन रहने का आनंद आपको न मिल जाय, तब तक वास्तव में धर्म की अध्यात्म की, आनंद की प्रतीति आपको संभव नहीं हो सकती है।  और इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि हर प्रकार कि बड़ बड़ से मुक्त होना ही धर्म का प्राण है।  थोड़ी देर को आप अकेले हो जाओ, थोड़ी देर को आप ऐसे हो जाओ जैसे आप इस संसार में होकर भी इस संसार से मुक्त हो गए, आप सिर्फ स्वयं में हो, स्वयं के अलावा जैसे इस पृथ्वी पर कोई और है ही नहीं।  ऐसा क्या कभी अनुभव किया जा सकता है?

मैं चाहता हूँ कि 5 मिनट के लिए आप अपनी आँखें बंद कर लें और ऐसे हो जायं जैसे कि आप दुनिया में हैं ही नहीं।  साड़ी दुनिया आप के लिए जैसे समाप्त हो गयी है और आप अकेले हैं, अपने में हैं। स्वस्थ हैं।  थोड़ी देर के लिए स्वस्थ हो जाइये।  स्वस्थ का  है स्व + अस्थ।  यानि अपने में स्थित हो जाइये।  जो अपने में स्थित हो सके, जो अपने भीतर स्थित हो सके वही सच्चे अर्थों में स्वस्थ है, बाकी सारे लोग अस्वस्थ हैं।

आप अपनी भौतिक संसार की तमाम आकाँक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं।  संसार के बहुत से शारीरिक और मानसिक कष्टों से मुक्त होना चाहते हैं।  जीवन की आकांक्षाएं हैं उनको पूरा करना चाहते हैं और शायद सद्गुरु के पास पहुँचने का एक सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी होता है की आप अपने जीवन की कामनाओं को पूरा कर सकें और सद्गुरु उसमें सहयोगी हो सकें। निश्चय ही सद्गुरु उसमें सहयोगी होगा।  निश्चय ही सद्गुरु के प्रति आपका प्रेम, सद्गुरु के प्रति आपकी श्रद्धा, 99% आपकी आकांक्षा को पूरा करना में सक्षम है।  लेकिन निर्भर करता है कि अपका प्रेम, आपकी श्रद्धा, आपका समर्पण कितना है।  पूरी-पूरी श्रद्धा हो, पूरा-पूरा समर्पण हो तो किसी अन्य चीज की जरूरत नहीं पड़ती है, किसी अन्य उपाय की जरूरत नहीं पड़ती है, किसी अन्य उपचार की जरूरत नहीं पड़ती है।  लेकिन पूरा-पूरा समर्पण का होना, पूरी-पूरी श्रद्धा का होना बहुत सरल नहीं है, कठिन है, साधना पड़ता है, साधने से सिद्ध होता है।  और आप यहाँ आते हैं, यह अध्यात्मिक केंद्र, यह धाम आपकी इस साधना को सिद्ध करने का उपाय है, माध्यम है कि कम से कम माह में एक बार मिलें और मिलते मिलते जैसे प्रेम बढ़ता है, प्रेम बढ़ने के साथ-साथ आकर्षण बढ़ता है और फिर समर्पण भी घटित होने लगता है।  धीरे-धीरे समर्पण की अवस्था उपलब्ध हो जाती है।  लेकिन मैं साफ साफ कहना चाहता हूँ, समर्पण या तो होता है या तो नहीं होता है।  होता है तो पूरा-पूरा होता है नहीं होता है तो पूरा-पूरा नहीं होता है।  जितनी महत्त्व्पूर्ण चीजें हैं पूरी-पूरी होती हैं नहीं तो होती ही नहीं हैं।  जीवन है – या तो पूरा-पूरा होता है; या तो पूरा-पूरा नहीं होता है।  जीवन है तो पूरा-पूरा, मृत्यु है तो पूरी-पूरी।  ऐसे ही प्रेम होता है।  प्रेम होता है तो पूरा-पूरा नहीं तो होता ही नहीं है।

गुरु से प्रेम हो जाय, समर्पण हो जाय तो पूरा-पूरा ही होता है लेकिन ये पूरा-पूरा होना थोड़े से लोगों के लिए ही होता है और जब पूरा-पूरा समर्पण हो जाता है तो उसको बिना मांगे ही सब कुछ मिल जाता है, सर्वस्व मिल जाता है।  जो गीता, कुरान, बाइबिल से नहीं मिलता वो समर्पण से हो जाता है।  जो दिनो-रात पूजा-पाठ करने से नहीं मिलता है, यज्ञ-हवन से नहीं मिलता है वो सिर्फ समर्पण से हो जाता है।  पूरा-पूरा समर्पण कैसे घटित हो यही सारी साधनाओं का उद्देश्य है।  सारी धर्म साधनाओ का उद्देश्य है कि कैसे-कैसे तुम्हारे प्राणों में समर्पण की घटना पूरी-पूरी घट जाय।  प्रेम की घटना कैसे-कैसे पूरी घट जाय और जिस दिन ये पूरा-पूरा घट जाता है, तुम कोई शर्त लगाना बंद कर देते हो, बेशर्त, चाहे गर्मी हो, जाड़ा हो, धूप हो, चाहे बारिश हो, तुम्हारे कदम घर से उठते हैं उनमें घूंघर बंध जाते हैं, और तुम थिरकते-नाचते अपने गुरु के पास पहुँच जाते हो।

गुरु के माध्यम से आपके जीवन में प्रेम की पूरी-पूरी घटना घटनी शुरू हो जाती है।  समर्पण की पूरी-पूरी घटना घटनी शुरू हो जाती है और सारी साधनाओं का एक ही उद्देश्य है की कैसे ये प्रेम की घटना, समर्पण की घटना तुम्हारे जीवन में घट जाय।

अगर थोड़ी देर तुम खुली आँखों से सद्गुरु को देख सको, थोड़ी देर तुम्हारे मस्तिष्क में कोई विचार न आये, सिर्फ देखते रह जाएँ; इस देखने में सच्चे अर्थों में सद्गुरु का दर्शन होता है लेकिन दर्शन के नाम पर तुम जहाँ-जहाँ जाते हो, चाहे मंदिर में जाते हो, चाहे तीर्थ स्थान पर जाते हो, अपने पूजा में बैठते हो या गुरु के दर्शन को जाते हो, तुम्हें कभी पूरा-पूरा दर्शन नहीं होता है।  क्योंकि जब तुम देख रहे हो, देखते समय कोई न कोई विचार तुम्हारे चित्त में उभरता रहता है। जैसे ही देखते समय कोई विचार तुम्हारे चित्त में आ जाय उस समय जो चीज तुम्हारी आँखों के सामने थी वो हट गयी और जो मौजूद नहीं था वो विचारों के कारण तुम्हारी आँखों के सामने आ गया, उसी समय दर्शन भंग हो गया।  जो जितने क्षण तुम सद्गुरु को देखते हो उसमें से शायद ही कोई क्षण ऐसा होता होगा जिसमें तुम कुछ सोच नहीं रहते होगे।  इसलिए पूरा-पूरा दर्शन करने की कला, पूरा-पूरा दर्शन करने का विज्ञान सीखना है तो देखते समय, दर्शन करते समय, सिर्फ देखना ही हो जाय, देखने के अलावा और कोई बात तुम्हारे चित्त में न आये तब तुम्हारा देखना पूर्ण होता है।  इसी तरह सुनते समय जब तुम सिर्फ सद्गुरु को सुन रहे हो, उस समय सद्गुरु को सुनने के अलावा और किसी चीज का विचार तुम्हारे चित्त में न आये तब सच्चे अर्थों में सद्गुरु को सुनना संभव हो पाता है।  तो सद्गुरु का दर्शन हो सके या तुम सद्गुरु को पूरा-पूरा सुन सको तो पूरा-पूरा सुनने भर से भी सारा काम हो जाता है।  सिर्फ सुनने भर से पूरा-पूरा काम हो जाता है।  लेकिन सुनना पूरा पूरा हो, सुनना आधा-अधूरा न हो और अगर अपने सुन लिया तो यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि तुमने क्या सुना।  यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि  मैंने किस विषय पर सुनाया, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मैंने क्या शब्द बोले,  सिर्फ यही महत्त्वपूर्ण है कि तुमने अपने गुरु को पूरा-पूरा सुना।

…  क्रमशः …

पुण्य का पुरस्कार

जीवन में कभी पाप न करने वाला एक फकीर था।  मृत्यु होने के बाद वह सीना तान करके गया कि मैं तो सीधे स्वर्ग में ही प्रवेश कर जाऊंगा।  पूरी जिंदगी भर वह संभल कर चला था और निश्चिन्त भी था, इसीलिए उसमें थोड़ी अकड़ भी थी।  सीना ताने जब वह स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचा तो दरवाजा बंद था।  बाहर दूत खड़ा था। उसने फकीर का रिकॉर्ड देख कर कहा, भाई, यह पहला आदमी मेरी जिंदगी में ऐसा आया है जिसने धरती पर रहकर कोई पाप नहीं किया।  अब वहां का द्वारपाल बड़े संकट में पड़ गया कि उसके साथ क्या सलूक किया जाय?  उसने कहा, मेरे दोस्त मैं बहुत परेशान हूँ।  हमारे स्वर्ग के संविधान के अनुसार जिसने बहुत पाप किया हो उसे तो नरक में भेज दिया जाता है।  लेकिन जिसने पाप करके अपने पापों का प्रायश्चित कर लिया हो उसे स्वर्ग में भेजा जाता है।  तो उसने कहा कि आप तो इसमें कहीं भी फिट नहीं हो रहे हो।  आपने तो कोई पाप ही नहीं किया, तो मैं आपको न स्वर्ग भेज सकता हूँ और न नरक भेज सकता हूँ।

वह बेचारा फकीर बहुत परेशान, बहुत हैरान था।  उसकी दुर्दशा को देखकर उस द्वारपाल ने कहा, देखो मैं तुम्हें बारह घंटे का समय देता हूँ, तुम्हें वापस पृथ्वी पर भेज देता हूँ।  तुम जाओ और छोटा सा पाप कर लो और उसका प्रायश्चित करके आ जाओ।  मैं तुम्हें स्वर्ग भेज दूंगा ताकि हमारी संविधान की व्यवस्था में आप फिट हो जायें।  वह फकीर धरती पर वापस आ गया और सोच ही रहा था कि कौन सा पाप करूं?  कुछ समझ नहीं पा रहा था।  वह किसी गाँव में प्रवेश कर रहा था कि उसने देखा गाँव के बाहर ही एक मकान था।  मकान के बाहर ही एक कलि-कलूटी, बदसूरत औरत खड़ी थी।  उस फकीर के स्वास्थ्य को देखकर उसके अन्दर इच्छा पैदा हुई कि यह व्यक्ति अगर मेरी ओर आकर्षित हो जाये, मुझे प्रेम करे तो कितना अच्छा होगा।  उस औरत को देखकर फकीर ने सोचा कि इस बदसूरत औरत के साथ अगर प्रेमानुभव हो जाता है तो मेरा थोड़ा सा पाप हो जायेगा।  फिर मैं उसका प्रायश्चित कर लूँगा।  सुनहरा अवसर है, इसको स्वीकार कर लेते हैं।  वह फकीर उसके पास गया उसके आमंत्रण को स्वीकार किया और उस बदसूरत औरत के प्रति पूरा प्रेम व्यक्त किया।

जब प्रातः काल फकीर उससे विदा लेने गया, तो उसने सोचा कि मैंने एक पाप कर्म कर लिया है, अब मैं हाथ जोड़कर प्रायश्चित कर लूँगा और स्वर्ग का भागीदार बन जाऊँगा।  उस औरत ने कहा कि मेरी जिन्दगी में तुम पहले आदमी हो, जिसने मुझे पूरे प्राणों से प्रेम किया है।  मैं भगवान को साक्षी मानकर कहती हूँ कि तुमने जो पुण्य मेरे प्रति किया है, परमात्मा उस पुण्य का पुरस्कार तुम्हें जरूर देगा।  अब उस फकीर को काटो तो खून नहीं।  उसने कहा कि मैं तो पाप करने आया था और यह औरत कह रही है कि तुमने मेरे प्रति जो पुण्य किया है, परमात्मा उस पुण्य का पुरस्कार अवश्य देगा।

अब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि यह कृत्य उसका पाप कृत्य था या पुण्य कृत्य?  बहुत मुश्किल है कह पाना कि कौन सा कृत्य पाप है, कौन सा कृत्य पुण्य है।  क्या शुभ है, क्या अशुभ है?  समाज नैतिकता के आधार पर व्यवस्था को संचालित करने के उद्देश्य से कुछ नियम बना लेता है, जिससे समाज की व्यवस्था चलती रहे।  इसीलिए बचपन से ही जब बच्चा इस धरती पर आता है, तो उसको डराया जाता है कि यह पाप है, यह पुण्य है।  यह शुभ है, यह अशुभ है, इसको करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए।  केवल इस उद्देश्य से कि जो नियम समाज के व्यवस्थापकों ने बनाये हैं, वे लागू रहें।  इससे अधिक उसका और कोई मूल्य नहीं है।  हर समाज अपनी व्यवस्था अपने ढंग से बनता है।  हमारे हिन्दू समाज में समाज के संस्थापकों ने ऐसा विधान किया कि कभी अपनी बहन के साथ, अपनी चचेरी बहन के साथ विवाह करने की कल्पना ही नहीं कर सकता है।  अगर कहीं कोई सोचे भी तो इसे बहुत बड़ा अनर्थ और बहुत बड़ा पाप घोषित कर दिया जायेगा।  लेकिन मुस्लमान भाइयों के यहाँ बड़े आराम से भाई बहन की शादी हो जाती है, उनके यहाँ यह पाप नहीं है।  समुदाय विशेष के घोषित कर देने से कोई कृत्य पाप या पुण्य नहीं बन जाया करता है, सत्य सारे ब्रम्हांड पर लागू होता है।  इसी तरह से कुछ देशों में जैसे कि नीदरलैंड में भाई प्रतीक्षा करता है कि मेरी सगी बहन हो जाये तो मैं उससे विवाह कर लूं, नहीं तो संपत्ति का अधिकार दूसरों को चला जाएगा।  बड़ी हीनता के भाव से देखा जाता है उस परिवार को जिस परिवार के बेटे को विवाह करने के लिए बहन नहीं है।  तो बहुत मुश्किल हैं पाप, पुण्य का तय कर पाना।  कोई कृत्य न पाप है, न कोई कृत्य पुण्य है।  बहुत कुछ करने वाले पर और करने की परिस्थिति पर निर्भर करता है।  कभी कभी आप पुण्य करना चाहते हैं तो वह पाप हो जाता है  और कभी कभी आप पाप करना चाहते हैं तो वह पुण्य हो जाता है।  फकीर जान बूझकर पाप करना चाहता था लेकिन कर नहीं पाया, वह पुण्य हो गया।  अतः आप होश में आकर कोई पाप नहीं कर सकते हैं।  मैं दूसरे शब्दों में कहूं कि अगर आप होश में हैं तो आपके द्वारा किसी प्रकार का पाप हो जाये यह संभव नहीं है।  जब भी आप अपना होश खो देते हैं किसी न किसी कारण से, तो जो कृत्य होता है वह पाप हो जाता है।  यह मैं पाप-पुण्य की परिभाषा दे रहा हूँ।  आप प्रयोग करके देखिये।  होश में रहकर आप किसी को गोली मारने की कोशिश करोगे तो कभी नहीं मार पाओगे।  आप होश में रहकर कभी चोरी करने की कोशिश करो चोरी नहीं कर पाओगे।

बुद्ध का एक परम शिष्य हुआ करता था आनंद।  बुद्ध शिक्षा देते थे कि स्त्रियों के पास जाने में सावधान रहना, नहीं तो तुम्हारे ध्यान की प्रक्रिया भंग हो जाएगी और तुम ध्यान से विमुक्त हो जाओगे।  आनंद ने एक दिन अपने गुरु से कहा कि गुरूजी – अगर ऐसी परिस्थितियां बन ही जाती हैं कि मुझे किसी स्त्री के पास रहना पड़े, तो आप बताएं कि विशेष परिस्थिति में औरत के पास ठहर जाऊं या न ठहरूं।  गौतम बुद्ध ने कहा, अगर ऐसी परिस्थिति आ जाती है तो तुम रुक जाना।  लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि उसकी ओर देखना नहीं, उसके रूप, सौन्दर्य को अपनी निगाहों में प्रवेश मत होने देना।  आनंद ने कहा, गुरूजी बहुत मुश्किल है।  अगर ठहरना ही पड़ा और कोई न कोई ऐसी परिस्थिति आ ही जाये कि देखना भी जरूरी हो जाये तो औरत को देखना है कि नहीं देखना है?  गुरूजी ने कहा, कोई बात नहीं देख लेना।  लेकिन एक शर्त है कि उसे स्पर्श मत करना।  शिष्य भी शिष्य होता है, जब ह्रदय खोल कर बैठता है, तो गुरु को भी संकट में डाल देता है।  मैं यही कहना चाहता हूँ कि आप जो भी करना चाहो करो, केवल होश में रहने की कला सीख लो, फिर पाप आपके हांथों से नहीं होगा, उसका करने वाला मैं रहूँगा, आप नहीं होंगे।  इसी प्रकार आप अपने सभी कर्मों को मुझे समर्पित कर दो और स्वयं आनंद और प्रेम से भर जाओ।