Category Archives: प्रवचन
प्रेम प्रकृति प्रदत्त दान है
मेरे प्रेमियों, आपने कभी सोचने की चेष्ठा की कि परमात्मा के दिये हुए इस अद्भुत व बहुमूल्य जीवन को आपने नरक कैसे बना लिया है? क्यों बना लिया है? इसका बुनियादी कारण क्या है? प्रेमियों! अगर मनुष्य को परमात्मा के निकट लाना है, तो आप परमात्मा की बात करना बंद कर दो। केवल मनुष्य को प्रेम के निकट लाइये। आपने जीवन में प्रेम का भाव भरिये। अगर आपके जीवन में प्रेम की तरंगों का आगमन हो जाता है, तो परमात्मा नाचता हुआ आपके आँगन में प्रकट हो सकता है।
बड़े दुःख का विषय है कि हमारे पूर्वजों ने अभी तक प्रेम को विकसित करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया। गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक हमारे समाज की सारी व्यवस्था प्रेम से विमुक्त है। उस सारी व्यवस्था का केंद्र प्रेम को नहीं बनाया जा सका। हमारा परिवार प्रेम का विरोधी है। हमारा समाज प्रेम का विरोधी है।
2012 in review
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गुरु और शिष्य का संबंध बनता है – श्रद्धा व समर्पण से
ज्ञान के आकर्षण के कारण गुरु के प्रति तुम्हारे हृदय में आदर का भाव बनता है। महीने, दो महीने बाद संभव है, तुम्हें पता चले कि तुम्हारा गुरु तो इतना ज्ञानी सचमुच में नहीं है, जितना तुम समझते थे, तो तुम्हारा आदर कम हो जाएगा, आदर क्षीण हो जायेगा। अगर तुमने देखा कि तुम्हारा गुरु बड़ा तपस्वी है, योग करता है, प्राणायाम करता है और इसीलिए तुम्हारे चित्त में गुरु के प्रति आकर्षण पैदा हो गया तो तुम समझोगे कि तुम्हारा गुरु बड़ा ज्ञानी है। लेकिन महीने दो महीने बाद तुम्हें पता चले कि कोई खास तपस्या नहीं, कोई खास साधना नहीं है, गुरु शीर्षाशन करना ही नहीं जानता है। जिस योग और साधना के कारण गुरु के प्रति आदर था तुम्हारे चित्त में, वह आदर का भाव तुम्हारे भीतर से चला जायेगा।
इस तरह छोटे-मोटे जो आदर के भाव होते हैं उससे गुरु पैदा नहीं होता है तुम्हारे जीवन में। गुरु पैदा होता है – श्रद्धा से। श्रद्धा किसी कारण से पैदा नहीं होती है। जब हृदय का हृदय से मेल होता है तभी किसी के प्रति श्रद्धा अकारण पैदा होती है।
जब हृदय का संबंध गुरु से बन जाता है, जब आत्मा का संबंध गुरु से हो जाता है तब गुरु और शिष्य का संबंध शुरू हो जाता है। वह गुरु और शिष्य के बीच का संबंध होता है। शेष सारे संबंध कितने ही गहरे क्यों न हों, वे मन के और शरीर के होते हैं। बाप-बेटे का संबंध शरीर से ज्यादा गहरा संबंध नहीं है। तुम्हारे अस्तित्व के तीन तल हैं – शरीर का तल, मन का तल, और सबसे सूक्ष्म आत्मा का तल। ये संबंध तीन तल पर होते हैं।
दुनिया में सारे संबंध जैसे – बाप बेटे का संबंध, पति पत्नी का संबंध या भाई बहन का संबंध हो, शरीर से बनने वाले संबंध हैं। लेकिन तुम्हारे और गुरु के बीच का संबंध शरीर के तल का नहीं है, मन के तल का संबंध नहीं है। ये तो आत्मा का आत्मा से, हृदय का हृदय से उत्पन्न होने वाला संबंध है। तभी तो सबको छोड़कर उनके चरणों में समर्पण कर देते हो।
जो तुम बेटे के लिये नहीं कर सकते, भाई बहन के लिये नहीं कर सकते, वह सब तुम गुरु के लिये कर सकते हो। मैं उससे भी अद्भुत बात बताता हूँ कि जो माँ-बाप बेटे के लिये नहीं कर सकता है जो भाई बहन एक दूसरे के लिये नहीं कर सकते हैं, उससे भी कई गुणा अधिक, अनंत गुणा ज्यादा, क्षण-प्रतिक्षण गुरु शिष्य के प्रति करने के लिये तत्पर रहता है। गुरु चाहता है कि मेरे प्रिय शिष्य को सारी सम्पदा मिल जाय। वह बांटने के लिये, झोली भरने के लिये सदा तैयार रहता है। गुरु तो एड़ी चोटी एक कर देता है, पसीना बहा देता है कि मेरी सारी सम्पदा मेरे प्रिय शिष्य को मिल जाय। मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरे शिष्य को मिल जाय।
यही गुरु कि करुणा है, यही गुरु का गुरुत्व है और यही गुरु कि महिमा है। वह अपना सब कुछ चौबीस घण्टे अपने प्रिय शिष्य में उलेड़ने को तत्पर रहता है। इसलिए तुम्हें ठोकता पीटता है, संभालता है, सब कुछ करता है कि कैसे अपने को तुम्हारे भीतर उलेड़ दे? गुरु देता है तो छोटी-मोटी चीज नहीं देता है कि-
“गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान,
तीन लोक की सम्पदा, सो दे दीन्ही दान।”
गुरु के समान देने वाला है ही नहीं। ब्रम्हा, विष्णु, महेश भगवान भी नहीं दे सकते है। कोई नहीं दे सकता। केवल स्वामी सुदर्शनाचार्य दे सकते हैं। आत्मा दे दी, अपने प्राण दे दिये, और कहा – बेटे अपना शरीर भी तुम्हें दे देता हूँ। अब और देने को क्या बचता है? वे तो साक्षात परमात्मा हैं। यह मत सोचना कि गुरु तुम्हारे जैसा है, क्योंकि उसे भी पसीना है, उसे भी बुखार आता है, उसे भी सर्दी-जुकाम होता है और उसे भी भूख-प्यास लगती है। फिर तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं बात आ ही जाती है कि गुरु को ब्रम्हा, विष्णु, महेश मानना मूर्खता की बातें हैं। क्योंकि वह भी तुम्हारे जैसा चलता है, तुम्हारे जैसे पहनता है और तुम्हारे जैसा बोलता है। लेकिन तुम्हारे मन में गुरु को परमात्मा स्वीकार करने का भाव बन गया तो फिर सब कुछ सारा वेद, सारा पुराण, सारी बाइबिल, सारी कुरान सब तुम्हारे भीतर उतार जायेगी।
दर्शन करने की कला
जो असाधारण है, जो परम है, जो सारे अध्यात्म का प्राण है, उस सन्देश को शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। उसका अनुभव तभी किया जा सकता है जब आपके भीतर मौन रहने का अभ्यास पैदा हो जाय, मौन रहने की कला आपके भीतर आ जाय, मौन होना आपको आ जाय। धर्म के नाम पर मैं सिर्फ मौन का संगीत आपके भीतर पैदा करना चाहता हूँ। शब्दों की बड़ बड़ से कोई काम होने वाला नहीं है। जब तक मौन का संगीत आपके भीतर पैदा न हो, जब तक चौबीस घंटे अधिक से अधिक मौन रहने का आनंद आपको न मिल जाय, तब तक वास्तव में धर्म की अध्यात्म की, आनंद की प्रतीति आपको संभव नहीं हो सकती है। और इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि हर प्रकार कि बड़ बड़ से मुक्त होना ही धर्म का प्राण है। थोड़ी देर को आप अकेले हो जाओ, थोड़ी देर को आप ऐसे हो जाओ जैसे आप इस संसार में होकर भी इस संसार से मुक्त हो गए, आप सिर्फ स्वयं में हो, स्वयं के अलावा जैसे इस पृथ्वी पर कोई और है ही नहीं। ऐसा क्या कभी अनुभव किया जा सकता है?
मैं चाहता हूँ कि 5 मिनट के लिए आप अपनी आँखें बंद कर लें और ऐसे हो जायं जैसे कि आप दुनिया में हैं ही नहीं। साड़ी दुनिया आप के लिए जैसे समाप्त हो गयी है और आप अकेले हैं, अपने में हैं। स्वस्थ हैं। थोड़ी देर के लिए स्वस्थ हो जाइये। स्वस्थ का है स्व + अस्थ। यानि अपने में स्थित हो जाइये। जो अपने में स्थित हो सके, जो अपने भीतर स्थित हो सके वही सच्चे अर्थों में स्वस्थ है, बाकी सारे लोग अस्वस्थ हैं।
आप अपनी भौतिक संसार की तमाम आकाँक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं। संसार के बहुत से शारीरिक और मानसिक कष्टों से मुक्त होना चाहते हैं। जीवन की आकांक्षाएं हैं उनको पूरा करना चाहते हैं और शायद सद्गुरु के पास पहुँचने का एक सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी होता है की आप अपने जीवन की कामनाओं को पूरा कर सकें और सद्गुरु उसमें सहयोगी हो सकें। निश्चय ही सद्गुरु उसमें सहयोगी होगा। निश्चय ही सद्गुरु के प्रति आपका प्रेम, सद्गुरु के प्रति आपकी श्रद्धा, 99% आपकी आकांक्षा को पूरा करना में सक्षम है। लेकिन निर्भर करता है कि अपका प्रेम, आपकी श्रद्धा, आपका समर्पण कितना है। पूरी-पूरी श्रद्धा हो, पूरा-पूरा समर्पण हो तो किसी अन्य चीज की जरूरत नहीं पड़ती है, किसी अन्य उपाय की जरूरत नहीं पड़ती है, किसी अन्य उपचार की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन पूरा-पूरा समर्पण का होना, पूरी-पूरी श्रद्धा का होना बहुत सरल नहीं है, कठिन है, साधना पड़ता है, साधने से सिद्ध होता है। और आप यहाँ आते हैं, यह अध्यात्मिक केंद्र, यह धाम आपकी इस साधना को सिद्ध करने का उपाय है, माध्यम है कि कम से कम माह में एक बार मिलें और मिलते मिलते जैसे प्रेम बढ़ता है, प्रेम बढ़ने के साथ-साथ आकर्षण बढ़ता है और फिर समर्पण भी घटित होने लगता है। धीरे-धीरे समर्पण की अवस्था उपलब्ध हो जाती है। लेकिन मैं साफ साफ कहना चाहता हूँ, समर्पण या तो होता है या तो नहीं होता है। होता है तो पूरा-पूरा होता है नहीं होता है तो पूरा-पूरा नहीं होता है। जितनी महत्त्व्पूर्ण चीजें हैं पूरी-पूरी होती हैं नहीं तो होती ही नहीं हैं। जीवन है – या तो पूरा-पूरा होता है; या तो पूरा-पूरा नहीं होता है। जीवन है तो पूरा-पूरा, मृत्यु है तो पूरी-पूरी। ऐसे ही प्रेम होता है। प्रेम होता है तो पूरा-पूरा नहीं तो होता ही नहीं है।
गुरु से प्रेम हो जाय, समर्पण हो जाय तो पूरा-पूरा ही होता है लेकिन ये पूरा-पूरा होना थोड़े से लोगों के लिए ही होता है और जब पूरा-पूरा समर्पण हो जाता है तो उसको बिना मांगे ही सब कुछ मिल जाता है, सर्वस्व मिल जाता है। जो गीता, कुरान, बाइबिल से नहीं मिलता वो समर्पण से हो जाता है। जो दिनो-रात पूजा-पाठ करने से नहीं मिलता है, यज्ञ-हवन से नहीं मिलता है वो सिर्फ समर्पण से हो जाता है। पूरा-पूरा समर्पण कैसे घटित हो यही सारी साधनाओं का उद्देश्य है। सारी धर्म साधनाओ का उद्देश्य है कि कैसे-कैसे तुम्हारे प्राणों में समर्पण की घटना पूरी-पूरी घट जाय। प्रेम की घटना कैसे-कैसे पूरी घट जाय और जिस दिन ये पूरा-पूरा घट जाता है, तुम कोई शर्त लगाना बंद कर देते हो, बेशर्त, चाहे गर्मी हो, जाड़ा हो, धूप हो, चाहे बारिश हो, तुम्हारे कदम घर से उठते हैं उनमें घूंघर बंध जाते हैं, और तुम थिरकते-नाचते अपने गुरु के पास पहुँच जाते हो।
गुरु के माध्यम से आपके जीवन में प्रेम की पूरी-पूरी घटना घटनी शुरू हो जाती है। समर्पण की पूरी-पूरी घटना घटनी शुरू हो जाती है और सारी साधनाओं का एक ही उद्देश्य है की कैसे ये प्रेम की घटना, समर्पण की घटना तुम्हारे जीवन में घट जाय।
अगर थोड़ी देर तुम खुली आँखों से सद्गुरु को देख सको, थोड़ी देर तुम्हारे मस्तिष्क में कोई विचार न आये, सिर्फ देखते रह जाएँ; इस देखने में सच्चे अर्थों में सद्गुरु का दर्शन होता है लेकिन दर्शन के नाम पर तुम जहाँ-जहाँ जाते हो, चाहे मंदिर में जाते हो, चाहे तीर्थ स्थान पर जाते हो, अपने पूजा में बैठते हो या गुरु के दर्शन को जाते हो, तुम्हें कभी पूरा-पूरा दर्शन नहीं होता है। क्योंकि जब तुम देख रहे हो, देखते समय कोई न कोई विचार तुम्हारे चित्त में उभरता रहता है। जैसे ही देखते समय कोई विचार तुम्हारे चित्त में आ जाय उस समय जो चीज तुम्हारी आँखों के सामने थी वो हट गयी और जो मौजूद नहीं था वो विचारों के कारण तुम्हारी आँखों के सामने आ गया, उसी समय दर्शन भंग हो गया। जो जितने क्षण तुम सद्गुरु को देखते हो उसमें से शायद ही कोई क्षण ऐसा होता होगा जिसमें तुम कुछ सोच नहीं रहते होगे। इसलिए पूरा-पूरा दर्शन करने की कला, पूरा-पूरा दर्शन करने का विज्ञान सीखना है तो देखते समय, दर्शन करते समय, सिर्फ देखना ही हो जाय, देखने के अलावा और कोई बात तुम्हारे चित्त में न आये तब तुम्हारा देखना पूर्ण होता है। इसी तरह सुनते समय जब तुम सिर्फ सद्गुरु को सुन रहे हो, उस समय सद्गुरु को सुनने के अलावा और किसी चीज का विचार तुम्हारे चित्त में न आये तब सच्चे अर्थों में सद्गुरु को सुनना संभव हो पाता है। तो सद्गुरु का दर्शन हो सके या तुम सद्गुरु को पूरा-पूरा सुन सको तो पूरा-पूरा सुनने भर से भी सारा काम हो जाता है। सिर्फ सुनने भर से पूरा-पूरा काम हो जाता है। लेकिन सुनना पूरा पूरा हो, सुनना आधा-अधूरा न हो और अगर अपने सुन लिया तो यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि तुमने क्या सुना। यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मैंने किस विषय पर सुनाया, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मैंने क्या शब्द बोले, सिर्फ यही महत्त्वपूर्ण है कि तुमने अपने गुरु को पूरा-पूरा सुना।
… क्रमशः …
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