Category Archives: गुरु वाणी
मनुष्य शरीर और आत्मा का जोड़ है
मनुष्य शरीर और आत्मा का जोड़ है। शरीर के लिए बहुत जरूरी है भौतिक सुख-समृद्धि की ऊंचाइयों पर होना। पर आत्मा के लिए बहुत जरूरी है भीतर से परम शांति, परम आनंद की अवस्था को उपलब्ध करना। आत्मा को भूखा नहीं रखा जा सकता, आत्मा भूखी रह गयी तो जीवन नरक हो जायेगा और चाहे जितनी धन सम्पदा आपके पास हो और सिर्फ आत्मा को स्वस्थ करने में लगे रहे, शरीर और भौतिक दिशाओं में ध्यान नहीं दिया तो दीनता, दरिद्रता, अपंगता की स्थिति को उपलब्ध हो जाएंगे। भौतिक जीवन और भीतर की शांति और आनंद को उपलब्ध करने वाला आध्यात्मिक जीवन कैसे मिले इसीलिए मैंने गीता, क़ुरान, बाइबिल, धम्मपद और दुनिया के जीतने संबुद्ध पुरुषों ने अपनी खोज, अपनी तलाश के द्वारा अभिव्यक्तियाँ दी थी सबको गहरे में तलाशा, गहरे में खोजा तो जिस निष्कर्ष पर निकला उसे मैंने साइन्स डिवाइन के तीन महामंत्रों के माध्यम से दुनिया को अर्पित करने की चेष्ठा की। अगर ये तीन महामंत्र आपके प्राणों में उतार जायें तो गीता, क़ुरान, बाइबिल से लेकर पृथ्वी पर अब तक जो भी धर्म, आध्यात्म, और मनोविज्ञान के क्षेत्र में भौतिक और आध्यात्मिक दिशा में प्रगति करने के लिये आवश्यक है सब समाहित हो जाता है, सब प्रकट हो जाता है। तो कहीं से आप शुरू कर सकते हैं, पहुंचेंगे वहीं। पर तीनों महामंत्र आपके प्राणों में आत्मसात हो जायें इसके लिये सिर्फ तीन महामंत्रों की समझ ही पर्याप्त है। अगर आपको इनकी समझ आ गयी तो इनकी समझ का परिणाम होता है की धीरे-धीरे आपके भीतर का रसायन बदलने लगता है और आपके इस जीवन में जो होने लायक है वो होना शुरू हो जाता है, जो छूटने लायक है वो छूटता चला जाता है।
तुम कर क्या सकते हो?
सद्गुरु सिर्फ राह ही नहीं दिखाता है, रास्ता ही नहीं दिखाता है; राह और रास्ते तो किताबें भी बता सकती हैं, लेकिन सद्गुरु की भूमिका होती है कुछ और। राह तो आपको भी पता है। संत अगस्तीन बड़ी ही प्रीतिकर बात कहता है कि जिंदगी में क्या-क्या करना चाहिये ये मुझे भली भांति पता है लेकिन मैं हमेशा वही करता हूँ को मुझे नहीं करना चाहिये। क्या-क्या मुझे नहीं करना चाहिये यह भी मुझे पता है लेकिन मैं हमेशा वही करता हूँ जो मुझे नहीं करना चाहिये।
रास्ता बताने की जरूरत नहीं है, रास्ता तो आपको भी पता है कि क्या करना चाहिये, और न भी पता हो तो जान सकते हो इधर-उधर से पूछ-पाछ कर। लेकिन सद्गुरु की असली भूमिका है कि अगर उनका हाथ आपने पकड़ लिया तो वह आपको सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर देता है, सही रास्ते पर चलने के लिए विवश कर देता है। कृष्ण ने अर्जुन को सिर्फ सही राह ही नहीं दिखायी, खींच खींच कर उस रास्ते पर लाये, बार बार अर्जुन ने भागने की चेष्ठा की लेकिन बार बार अर्जुन को उन्होने समझाया, खींचा, बार बार गड्ढों से निकाला और रास्ते पर ले गए, तब तक धक्के दे देकर चलाते रहे जब तक मंजिल पर पहुँच नहीं गया, यही गुरु की असली भूमिका है।
तुम कर क्या सकते हो, सिर्फ एक काम कर सकते हो। तुम सद्गुरु को यथासंभव, अधिक से अधिक उपलब्ध रहो, जब भी मौका लगे, जितना अधिक से अधिक हो सके, उसके सान्निध्य में, उसके सामीप्य में होने का प्रयास करो। यही इतना तुम कर सकते हो, बाक़ी सारा काम सद्गुरु का है, शेष काम वह स्वयं करता चला जाता है, करता चला जाता है, करता चला जाता है।
आकर्षण का नियम 2
हर विचार एक कारण है और हर कार्य या उत्पन्न परिस्थिति उसका परिणाम मात्र है। इस विश्व में विचार ही सबसे महत्त्वपूर्ण, रहस्यपूर्ण और अदृश्य, जीवित मौजूद शक्ति है। विचार बिलकुल जीवित वस्तुओं की तरह हैं। बाहरी सफलता भीतर की सफलता से ही प्रारम्भ होती है और यदि वास्तव में गंभीरतापूर्वक अपने वाह्य जीवन की गुणवत्ता को सुधारना चाहते है, तो आपको पहले अपने आंतरिक जीवन को सुधारना होगा। मस्तिष्क में छुपी हुई असीमित क्षमताओं को खोजना सीखने और इसके प्रभावी प्रयोग से, जो आप बनना चाहते हैं वह बनने और जीवन में असाधारण सफलता प्राप्त करने से महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं है।
आकर्षण का नियम, ब्रह्माण्ड का प्रकृतिक नियम है। इसके अनुसार, “लाइक अट्रैक्ट्स लाइक” यानि जब आप किसी विशेष विचार पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो आप उसी तरह के अन्य दूसरे विचारों को अपनी ओर आकर्षित करना प्रारम्भ कर लेते हैं। विचारों में चुम्बकीय शक्ति है और वे अपनी विशेष आवृत्ति (फ्रिक्वेन्सी) पर काम करते हैं। अतएव, वे उस फ्रिक्वेन्सी पर कार्य कर रहे अन्य सभी समान विचारों आकर्षित करना और आपको सर्वथा प्रभावित करना प्रारम्भ कर देते हैं। आप ब्रह्माण्ड के सबसे शक्तिशाली संचरण मीनार (ट्रांसमिसन टावर) हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप नियति को क्या संदेश देना और उससे क्या प्राप्त करना चाहते हैं।
धर्म समझ की क्रांति है
जो अस्तित्व तुम्हें दे रहा है उसे स्वीकार करो, दुख आये उसे स्वीकार करो, यदि तुम उसे स्वीकार कर लेते हो, उससे संघर्ष नहीं करते हो तो दुख भी सुख में बदल जाता है। अन्यथा तुम्हें क्या पता कि सुख क्या है दुःख क्या है। जिसे चाहते हैं उसे पाने के लिए दौड़ते रहते हैं दिन और रात पर वह नहीं मिलता। और जिसे सुख समझकर पकड़ते हो, मालूम चलता है कि वो सुख है ही नहीं। जैसे मछली दौड़ती है मछुए की कटिया के पीछे, चारा समझकर उस पर झपटती है, पर बाद में पता चलता है कि वह तो कांटा था। तुम्हारे सारे सुख इसी तरह हैं। मिलते ही पता चलता है कि इसमें तो कांटे छिपे हैं। तुम हमेशा भ्रम में जीते हो। और इसी आशा में जीये चले जा रहे कि जो तुम्हें चाहिए वो आज नहीं तो कल मिल जाएगा। ऐसे ही भागे जा रहे हो, जैसे आसमान और जमीन, जहां मिलते हैं दूर से देखने पर ऐसा लगता है, जैसे पकड़ लोगे। लेकिन पास में जाने पर मालूम पड़ता है कि अभी उतनी ही दूरी है। ऐसे ही निरंतर तुम भागे जा रहे हो। तुम्हें मिलता हुआ लगता है, पर मिलता नहीं हैं। तुम्हें प्रतीति हो जाये, यह एहसास हो जाये कि यह सुख नहीं है। इसी का तुम्हें विज्ञान बताना चाहता हूँ। जिसे समझने में तुम सौ साल लगा दोगे तो भी नहीं समझ पाओगे। तुम्हें निचोड़ बता रहा हूं, तुममे समझ पैदा करना चाहता हूं कि धर्म समझ की क्रांति है।
मुरारी लाल सम्राट के यहाँ का नौकर था। उसके शयन कक्ष की सफाई करता था। उसके मन में यह विचार आया कि कितना आरामदायक, सुगंधित, गद्देदार बिस्तर है। सम्राट का नौकर एक दिन अपने लोभ को न रोक सका। देखा आस पास में कोई नहीं है। उसने सोचा कि सम्राट के बिस्तर पर लेटा जाये। लोट-पोट होकर सो लेता है। फिर बादशाह की तरह लेट जाता है और कहते हैं कि थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई। पंद्रह मिनट के बाद उसे झकझोर कर उठा दिया गया और इस महापाप के लिए सम्राट के सामने सभा में बुलाया गया और सज़ा दी कि पचास कोड़े मारे जायें। जैसे ही पहला कोड़ा लगता है मुरारी लाल जोर से खिलखिला कर हंस पड़ता है। दूसरा कोड़ा लगता है तो भी मुरारी लाल खिलखिलाकर हँसता रहता है। लेकिन जब आठ-दस कोड़े लगे तो मुरारीलाल की पीठ लहू-लुहान होने लगती है, फिर भी रोने के बजाय मुरारी लाल हँसता रहता है। तब सम्राट कहते हैं, ‘रोको, पहले इससे हंसने का कारण पूछो। मेरे द्वारा दी गई सज़ा का अपमान क्यों कर रहा है यह?’ मुरारी लाल ने कहा, ‘हुज़ूर, मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूं और न ही अपमान कर रहा हूं, मैं तो यह हिसाब लगा रहा हूं कि सिर्फ १५ मिनट पहले आपके बिस्तर पर सोने से इतनी बड़ी सज़ा मिली और आप इस बिस्तर पर पिछले चालीस वर्षों से सो रहे हैं तो आपका कितना बुरा हाल होगा’। सम्राट की तरह तुम सबको लगता है कि तुम भी सुख में जी रहे हो। लेकिन तुम जिसको सुख समझ रहे हो, वह एक तरह का कोढ़ है, जिसका तुम्हें पता नहीं चलता। इसीलिए सद्गुरु ने तुम्हें राह बताने की कोशिश की है कि कैसे तुम्हें दुखों से बचाया जाये, कैसे तुम्हें उससे छुड़ाया जाये। एक ही तो उद्देश्य है मनुष्य का, एक ही तो लक्ष्य है कि दुखों से कैसे छुटकारा मिले? और सुखों को कैसे प्राप्त किया जाए? इसी लक्ष्य को पाने के लिए संतों ने अनेक प्रकार के उपाय बताये, इसी के लिए संतों ने परमात्मा को पैदा किया। किसी ने कहा कर्म योग मार्ग, किसी ने कहा भक्ति योग मार्ग, किसी ने कहा कि ज्ञान योग मार्ग। कभी-कभी मुझसे पूछा जाता है ‘गुरुजी! आप का कौन सा मार्ग है? आप कर्म योगी हो, ज्ञान योगी हो अथवा भक्ति योगी हो?’ आज मैं आपसे अपने जीवन के अनुभव का सार बताना चाहता हूं। जीवन के चार आयाम हैं। सबसे पहले जो आयाम परिधि पर है, बिल्कुल बाहर-बाहर वह कर्म का क्षेत्र है। वहाँ पर मनुष्य कर्म को ही जीवन मान लेता है। जीवन भर कर्म करता रहता है। सबसे बाहर कर्मों का जगत है और थोड़ा भीतर आओ तो उसके बाद आते हैं विचार। विचार करने के भी पहले आता है एक और जगत उसे कहते हैं भाव जगत। प्रेम, स्नेह, श्रद्धा, करुणा ये भाव पीछे रहते हैं और अत्यंत भीतर बिलकुल केंद्र की ओर आओ तो एक यह भाव आता है कि एक चेतना है, यह चेतना ही मनुष्य के जीवन का केंद्र है, चेतना ही आत्मा का तल है जो इन सब चीजों से अछूता है, साक्षी है, वो ही सिर्फ देख रहा है, तुम्हारा मूल स्वरूप, आत्मस्वरूप, सिर्फ साक्षी। इसके इर्द-गिर्द तीन जगत व भाव जगत में प्रेम है, घृणा है, स्नेह है, दूसरा जगत विचार का जगत है और सबसे बाहर है कर्म का जगत। और चौथी मंजिल है तुम्हारा आत्म स्वरूप, तुम्हारी चेतना। तीन तो है मार्ग और चौथी है मंजिल। यानि तुम्हें मूल स्वरूप साक्षी मिल जाए, तुम अपने मूल स्वरूप में आ जाओ। मेरे जीवन का यही उद्देश्य है कि तुम्हारी परमात्मा से प्रतीति हो जाये।
आकर्षण का नियम
आकर्षण का नियम, ब्रह्माण्ड का प्राकृतिक नियम है। इसके अनुसार, “लाइक अट्रैक्ट्स लाइक” यानि जब आप किसी विशेष विचार पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो आप उसी तरह के अन्य दूसरे विचारों को अपनी ओर आकर्षित करना प्रारम्भ कर लेते हैं। विचारों में चुम्बकीय शक्ति है और वे अपनी विशेष आवृत्ति (फ्रिक्वेन्सी) पर काम करते हैं। अतएव, वे उस फ्रिक्वेन्सी पर कार्य कर रहे अन्य सभी समान विचारों आकर्षित करना और आपको सर्वथा प्रभावित करना प्रारम्भ कर देते हैं। आप ब्रह्माण्ड के सबसे शक्तिशाली संचरण मीनार (ट्रांसमिसन टावर) हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप नियति को क्या संदेश देना और उससे क्या प्राप्त करना चाहते हैं।
आपका वर्तमान जीवन आपके बीते हुए कल में आप द्वारा की गयी इच्छाओं और विचारों का परिणाम है और, जैसे आपके विचार आज हैं उससे आपका भविष्य निर्मित होगा। “विचार शक्ति का विज्ञान” का सार है कि आप जिस विषय में विचार करते हैं या ध्यान केन्द्रित करते हैं आपको वही प्राप्त होता है, चाहे आप चाहें या न चाहें। एक दूसरे से मिलते जुलते सारे विचार एक ही दिशा में पंक्तिबद्ध होकर वस्तु रूप लेने लगते हैं। निराकार साकार रूप लेने लगता है।
आप जिस भी संबंध में विचार कर रहे हैं वह आपके भविष्य की घटनाओं की योजना बनाने जैसा है। जब आप किसी की प्रशंसा कर रहे हैं तब भी आप योजना बना रहे हैं। जब आप किसी विशेष विषय में चिंता कर रहे हैं तब भी आप योजना बना रहे हैं। चिंता करना आपकी कल्पनाशक्ति से कुछ ऐसा करवाती है जैसा आप अपने जीवन में कभी नहीं होने देना चाहेंगे। इस तरह हर विचार विश्व व्यवस्था या ब्रह्माण्ड को एक निमंत्रण है और आपके विचार शक्ति से निमंत्रण के बिना आपके जीवन में कुछ भी घटित नहीं हो सकता है। और, विश्वास रखें, शक्तिशाली आकर्षण के नियम का कोई अपवाद नहीं है।
कल्पनाओं से परिपूर्ण विचार समान चीजों को वास्तविकता की ओर आकर्षित करते हैं। मतलब आपके विचार अपने साथ की कल्पना की शक्ति से और भी शक्तिशाली हो जाते हैं। विचारों को वास्तविकता में बदलने में कल्पनाएं एक शक्तिशाली भूमिका निभाती हैं। यदि आप किसी ऐसे लक्ष्य के बारे में सोचिए जिसके बारे में आपका उत्साह आधा-अधूरा हो। इस लक्ष्य को पाने में आपको अधिक समय लगेगा। परंतु यदि आप भावनात्मक रूप से पूरी तरह उत्साहित हैं तो आपको लक्ष्य बहुत जल्दी प्राप्त होगा। दूसरे शब्दों में, यदि आपके विचार आपको लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में ले जाने वाले वाहन हैं तो आपकी भावनाएं ईंधन हैं जो इस वाहन को शक्ति देती हैं।
आप अपने जीवन में होने वाली हर घटना के उत्तरदायी हैं। किसी स्तर पर – चेतन या अचेतन, आपने हर आदमी, हर विचार, हर रोग, हर आनंद और दर्द के हर क्षण को अपने जीवन में आकर्षित किया है। आप जो भी विचार करते हैं और जो भी अनुभव करते हैं वह बिना किसी अपवाद के आपके जीवन में घटित हो जाता है। यह होता ही है चाहे भले ही आप ऐसा न चाहते हों।
अपने जीवन को बेहतर तरीके से नियंत्रित करने के लिये, अपनी दिनचर्या को विभागों में विभाजित करने का प्रयास कीजिये। इसका सबसे अच्छा तरीका है की अपनी घरेलू जिंदगी, स्कूल की जिंदगी, निजी जिंदगी, और पारिवारिक जिंदगी को अलग-अलग कर दें। ध्यान रखेँ अपनी प्राथमिकताओं को इनके साथ न उलझाएं।
यह पृथक्करण आपकी कई तरीकों से मदद करेगा। यह आपके तनाव के स्तर को कम करने में, आपकी विचार शक्ति को बढ़ाने में, आपको और प्रभावशाली और उपजाऊ बनने में मदद करेगा। इस अलगाव की सबसे विशेष बात यह है की यह आपको स्वाभाविक रूप से परिपक्क्व बनाएगा।
गुरु और शिष्य का संबंध बनता है – श्रद्धा व समर्पण से
ज्ञान के आकर्षण के कारण गुरु के प्रति तुम्हारे हृदय में आदर का भाव बनता है। महीने, दो महीने बाद संभव है, तुम्हें पता चले कि तुम्हारा गुरु तो इतना ज्ञानी सचमुच में नहीं है, जितना तुम समझते थे, तो तुम्हारा आदर कम हो जाएगा, आदर क्षीण हो जायेगा। अगर तुमने देखा कि तुम्हारा गुरु बड़ा तपस्वी है, योग करता है, प्राणायाम करता है और इसीलिए तुम्हारे चित्त में गुरु के प्रति आकर्षण पैदा हो गया तो तुम समझोगे कि तुम्हारा गुरु बड़ा ज्ञानी है। लेकिन महीने दो महीने बाद तुम्हें पता चले कि कोई खास तपस्या नहीं, कोई खास साधना नहीं है, गुरु शीर्षाशन करना ही नहीं जानता है। जिस योग और साधना के कारण गुरु के प्रति आदर था तुम्हारे चित्त में, वह आदर का भाव तुम्हारे भीतर से चला जायेगा।
इस तरह छोटे-मोटे जो आदर के भाव होते हैं उससे गुरु पैदा नहीं होता है तुम्हारे जीवन में। गुरु पैदा होता है – श्रद्धा से। श्रद्धा किसी कारण से पैदा नहीं होती है। जब हृदय का हृदय से मेल होता है तभी किसी के प्रति श्रद्धा अकारण पैदा होती है।
जब हृदय का संबंध गुरु से बन जाता है, जब आत्मा का संबंध गुरु से हो जाता है तब गुरु और शिष्य का संबंध शुरू हो जाता है। वह गुरु और शिष्य के बीच का संबंध होता है। शेष सारे संबंध कितने ही गहरे क्यों न हों, वे मन के और शरीर के होते हैं। बाप-बेटे का संबंध शरीर से ज्यादा गहरा संबंध नहीं है। तुम्हारे अस्तित्व के तीन तल हैं – शरीर का तल, मन का तल, और सबसे सूक्ष्म आत्मा का तल। ये संबंध तीन तल पर होते हैं।
दुनिया में सारे संबंध जैसे – बाप बेटे का संबंध, पति पत्नी का संबंध या भाई बहन का संबंध हो, शरीर से बनने वाले संबंध हैं। लेकिन तुम्हारे और गुरु के बीच का संबंध शरीर के तल का नहीं है, मन के तल का संबंध नहीं है। ये तो आत्मा का आत्मा से, हृदय का हृदय से उत्पन्न होने वाला संबंध है। तभी तो सबको छोड़कर उनके चरणों में समर्पण कर देते हो।
जो तुम बेटे के लिये नहीं कर सकते, भाई बहन के लिये नहीं कर सकते, वह सब तुम गुरु के लिये कर सकते हो। मैं उससे भी अद्भुत बात बताता हूँ कि जो माँ-बाप बेटे के लिये नहीं कर सकता है जो भाई बहन एक दूसरे के लिये नहीं कर सकते हैं, उससे भी कई गुणा अधिक, अनंत गुणा ज्यादा, क्षण-प्रतिक्षण गुरु शिष्य के प्रति करने के लिये तत्पर रहता है। गुरु चाहता है कि मेरे प्रिय शिष्य को सारी सम्पदा मिल जाय। वह बांटने के लिये, झोली भरने के लिये सदा तैयार रहता है। गुरु तो एड़ी चोटी एक कर देता है, पसीना बहा देता है कि मेरी सारी सम्पदा मेरे प्रिय शिष्य को मिल जाय। मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरे शिष्य को मिल जाय।
यही गुरु कि करुणा है, यही गुरु का गुरुत्व है और यही गुरु कि महिमा है। वह अपना सब कुछ चौबीस घण्टे अपने प्रिय शिष्य में उलेड़ने को तत्पर रहता है। इसलिए तुम्हें ठोकता पीटता है, संभालता है, सब कुछ करता है कि कैसे अपने को तुम्हारे भीतर उलेड़ दे? गुरु देता है तो छोटी-मोटी चीज नहीं देता है कि-
“गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान,
तीन लोक की सम्पदा, सो दे दीन्ही दान।”
गुरु के समान देने वाला है ही नहीं। ब्रम्हा, विष्णु, महेश भगवान भी नहीं दे सकते है। कोई नहीं दे सकता। केवल स्वामी सुदर्शनाचार्य दे सकते हैं। आत्मा दे दी, अपने प्राण दे दिये, और कहा – बेटे अपना शरीर भी तुम्हें दे देता हूँ। अब और देने को क्या बचता है? वे तो साक्षात परमात्मा हैं। यह मत सोचना कि गुरु तुम्हारे जैसा है, क्योंकि उसे भी पसीना है, उसे भी बुखार आता है, उसे भी सर्दी-जुकाम होता है और उसे भी भूख-प्यास लगती है। फिर तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं बात आ ही जाती है कि गुरु को ब्रम्हा, विष्णु, महेश मानना मूर्खता की बातें हैं। क्योंकि वह भी तुम्हारे जैसा चलता है, तुम्हारे जैसे पहनता है और तुम्हारे जैसा बोलता है। लेकिन तुम्हारे मन में गुरु को परमात्मा स्वीकार करने का भाव बन गया तो फिर सब कुछ सारा वेद, सारा पुराण, सारी बाइबिल, सारी कुरान सब तुम्हारे भीतर उतार जायेगी।
महामेधा क्रिया
मष्तिष्क की अनंत शक्तियों का अधिकतम उपयोग कराने वाली एक अत्यंत प्रभावशाली वैज्ञानिक विधि
आपका मष्तिष्क: कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य
मनुष्य का मष्तिष्क अत्यंत रहस्यपूर्ण शक्तियों का स्रोत है किन्तु, वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो चुका है की मनुष्य इन शक्तियों का 7 प्रतिशत से 15 प्रतिशत तक ही उपयोग कर पाता है, शेष मष्तिष्क क्षमता के उपयोग से सारी मनुष्यता वंचित रह जाती है। महामेधा क्रिया एक ऐसी परम वैज्ञानिक विधि है जिसके अभ्यास से मनुष्य अपनी मष्तिष्क क्षमता का अधिकतम उपयोग करने में सक्षम हो जाता है। यदि विद्यार्थी जीवन से ही इसका अभ्यास कर लिया जाये तो सम्पूर्ण जीवन में इसके चमत्कारी परिणाम अनुभव किये जा सकते हैं।
एक युवक के मष्तिष्क का औसत वजन 1.4 किग्रा होता है। मनुष्य के मष्तिष्क का वजन सम्पूर्ण शरीर के वजन का मात्र 3 प्रतिशत होता है, किन्तु शरीर के सम्पूर्ण आक्सिजन और रक्त आपूर्ति का 25 प्रतिशत उपभोग मष्तिष्क द्वारा ही किया जाता है। एक मष्तिष्क में 10 से 15 बिलियन न्यूरांस इतने सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते हैं कि एक पिन के ऊपरी सिरे पर 20 हजार न्यूरांस समा जायेंगे। इन न्यूरांस के पारस्परिक अंतर्संबंधों के आधार पर ही व्यक्ति की बुद्धिमत्ता निर्धारित होती है। मष्तिष्क में इन न्यूरांस के अंतर्संबंधों की संख्या कम से कम 10 ट्रिलियन होती है। इन अंतर्संबंधों को स्य्नाप्सेस कहा जाता है।
१. महामेधा क्रिया क्या है?
विद्यार्थियों की मानसिक क्षमता एवं बौद्धिक प्रतिभा में कई गुना वृद्धि करने में सक्षम महामेधा क्रिया एकाग्रता, स्मरण-शक्ति एवं आत्म विश्वास पैदा करने की एक परम वैज्ञानिक तकनीक है जो आधुनिक युग की विभिन्न परीक्षाओं में सफलता के उत्कर्ष पर पहुँचाने में चमत्कारिक रूप से सहायक है। अब तक के प्रयोगों में पाया गया कि अधिकांश मामलों में विद्यार्थियों के परिणामों में ४० प्रतिशत या उससे भी अधिक की वृद्धि हुई है। इस क्रिया के अभ्यास से धूम्रपान, मद्यपान एवं अन्य मादक पदार्थों यथा ड्रग्स आदि के सेवन से स्वतः मुक्ति मिलने लगती है। क्रोध, उद्दंडता, डिप्रेसन एवं अति-कामुकता जैसे नकारात्मक भावों से छुटकारा दिलाने वाली महा औषधि है महामेधा क्रिया। यही नहीं इस क्रिया के कुछ दिनों के अभ्यास से समस्त प्रकार के नेत्र-विकार दूर हो जाते हैं तथा विद्यार्थियों की आँखों पर लगा चश्मा भी शीघ्र ही उतर जाता है।
२. महामेधा क्रिया क्यों?
आधुनिकतम वैज्ञानिक शोधों के अनुसार बौद्धिक क्षमता जन्म-जात है। यह निष्कर्ष भी उल्लेखनीय है कि लगभग १४ वर्ष कि आयु के पश्चात् मनुष्य का बौद्धिक विकास रुक जाता है क्योंकि तब तक उसका शरीर पूरी तरह निर्मित हो चुका होता है और वह प्रजनन क्रिया से दूसरे मनुष्य को जन्म देने में सक्षम भी हो जाता है। इस उम्र के बाद बौद्धिक क्षमता में वृद्धि करने का कोई उपाय नहीं बचता। अतः उपलब्ध मानसिक एवं बौद्धिक क्षमता का अधिकतम उपयोग करने की तरकीब ही एक मात्र उपाय है जिससे इस दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि संभव है।
वैज्ञानिक शोधों से अब यह सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य अपनी मानसिक एवं बौद्धिक क्षमता का अधिकतम १५ प्रतिशत तक उपयोग कर पता है। अधिकांशतः अपनी मस्तिष्क-क्षमता का सिर्फ ६ प्रतिशत से ७ प्रतिशत तक ही उपयोग कर पता है। शेष मष्तिष्क-शक्तियां अप्रयुक्त पड़ी रह जाती हैं। महामेधा क्रिया मानव-मष्तिष्क में निहित क्षमता का अधिकतम उपयोग कराने वाली एक अत्यंत प्रभावशाली वैज्ञानिक विधि है। यदि अधिकांश लोग अपनी मष्तिष्क क्षमता का 10% से 20% तक ही उपयोग करने लगें तो यह दुनिया निश्चित ही अधिक सुन्दर, अधिक सुखमय और बिलकुल नयी हो जायेगी।
तनाव से राहत के लिए महामेधा
आकाश में ऊपर ऊंचाइयों तक उड़ सकते हैं। तब गुरुत्वाकर्षण की शक्ति आपके लिए उपयोगी बन जाती है। अगर आप उद्यम करते हैं, मनोबल और विचार शक्ति का प्रयोग करते हैं, तो सभी ग्रह आपके सहयोगी हैं, विरोधी नहीं। ये सारे भ्रम हैं। इसीलिए कहते हैं जिसका मनोबल ऊंचा होता है उसे और किसी चीज की जरूरत नहीं। नेपोलियन और हिटलर अपने मनन शक्ति के बल पर अपने हाथ की रेखाएं बदल देते थे। आपकी भी बदल सकते हैं। आप भी बदल सकते हैं अपनी जिंदगी। सिर्फ आपको अपने विचारों में परिवर्तन करने की विधि आ जाए। विचारों से परिर्वतन करने की तकनीक आ जाए। ग्रहों का प्रभाव १० प्रतिशत काम करता है ९० प्रतिशत विचारों की शक्ति काम करती है, आपका मनोबल काम करता है। मैंने एक महत्वपूर्ण सूत्र दिया आपको। हर दो-चार परिवार में एक व्यक्ति आपको मिल जाएगा, जो तनाव से ग्रसित होगा। तनाव एक मानसिक बीमारी है। जो चीज नहीं, मन उसको मान लेता है कि वह है और मन को महसूस भी होने लगता है। ये सारे नकारात्मक भाव, समस्त प्रकार के भय मनुष्य के चित्त में साकार हो उठते हैं। उसे ही तनाव कहते हैं। तनाव से मुक्त होने का सबसे प्रभावशाली उपाय है कि ऐसे व्यक्ति को सबसे पहले मेरे सम्पर्क में लाया जाय। ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में लाया जाए जो २४ घंटे हंसते हुए जीता हो। ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में लाया जाये जिसके जीवन में नाकारात्मकता आने से डरती हो, ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में जाया जाये जिसे न कहना आता ही नहीं तो, पहला उपाय ऐसे व्यक्ति को हंसी-खुशी के माहौल में लाया जाए। अगर कोई भी तनाव का मरीज मेरे पास आ जाए। दो-चार बार आ जायेगा तो मेरा सिद्ध वचन है कि उसका तनाव अपने आप खत्म होता चला जायेगा। उसे किसी डॉक्टर की जरूरत नहीं, एक बात। दूसरी बात, जिस परिवार का वह व्यक्ति है उस परिवार के लोग मानसिक रूप से, जिसके कहते हैं मैनटली, जिसको कहते हैं फीजियोथैरेपी, ऐसे व्यक्ति को फीजियोथैरेपी की जरूरत होती है। मानसिक रूप से उसे अपने विचारों में परिवर्तन करने की आवश्यकता होती है। आप घर के सदस्य उसको सहयोग दे सकते हैं। उसके मानसिक विचारों में परिवर्तन लाने की दिशा में। इसके अलावा उसे किसी ऐसे व्यक्ति से भी सहयोग दिलाए जो उसकी शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का भी उपचार कर दें। सबसे बड़ा उपचार जो मैं देना चाहता हूं। अगर आप उसे उपलब्ध करा सकें तो उस व्यक्ति को महामेधा क्रिया या संजीवनी क्रिया, इन दोनों में से कोई भी एक क्रिया का अभ्यास अवश्य कराएं। सिर्फ २१ दिन लगातार सुबह या शाम को महा मेधा क्रिया या संजीवनी क्रिया का अभ्यास कराएं। और ये क्रिया सीखने के लिए श्री सिद्ध सुदर्शन धाम में पूरी व्यवस्था है। वहां पर योग्य प्रशिक्षक है जो प्रतिदिन सायंकाल ५ से ६ बजे तक उपलब्ध रहते हैं। किसी भी सप्ताह में दो दिन शनिवार व रविवार में आप सीखिए। ये क्रिया तनाव के लिए रामबाण औषधि है। इस क्रिया को श्री सिद्ध सुदर्शन धाम में सीख सकता है वहां जाने पर संभावना है कि मुझसे मुलाकात भी हो जाएगी। और तनाव का समूल नाश हो सकता है और मैं उसमें सहयोग दूंगा। भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति को ले जाया गया। वह अंधा था। भगवान बुद्ध से कहा कि आपके पास लाए हैं, कुछ चमत्कार करिए। भगवान बुद्ध ने कहा कि इसको किसी वैद्य या किसी चिकित्सक के पास ले जाना चाहिए। ये मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है पहले उसका मानसिक उपचार कराइए। पहले वह मानसिक रूप से स्वस्थ हो जाए तब इसका मानसिक विकास किया जा सकता है। बच्चा पहले स्वस्थ हो जाये तब उसे मैराथन के लिए तैयार किया जा सकता है। मानसिक रूप से स्वस्थ करने के लिए जरूरत है शारीरिक चिकित्सा की, मानसिक चिकित्सा की; मन और शरीर दोनों एक साथ जुड़े हुए हैं। अगर कोई मानसिक रूप से ठीक नहीं है, तो उसमें शारीरिक रूप से कुछ कमियां हैं। एक तल पर विकार होता है। तो दूसरे पर भी संवेषित होता हैं। शरीर अस्वस्थ है तो मन पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। एक ही चिकित्सा करेंगे तो दूसरा कैसे स्वस्थ होगा। शारीरिक एवं मानसिक उपचार के लिए मैंने आपको बताया कि दो विधियां हैं। इन दो विधियों का अगर २१ दिनों तक प्रयोग कर लें तो उसके बाद उस व्यक्ति में परिवर्तन आने शुरू हो जाएंगे। इस क्रिया को करने से पहले वह किसी चिकित्सक की सलाह लें। इस क्रिया को वही कर सकता है जो शारीरिक रूप से स्वस्थ हो। तो, प्रथम चरण में जो काम वैद्य का, चिकित्सक का है वह वैद्य या चिकित्सक से ही कराना चाहिए। उसके बाद जब वह शारीरिक तल पर स्वस्थ हो जाए। फिर सद्गुरू का कार्य शुरू होता है। महामेधा क्रिया के द्वारा, संजीवनी क्रिया के द्वारा और मेरे सानिध्य के द्वारा और मेरे व्यक्तिगत सम्पर्क के द्वारा उसकी समस्या का समाधान किया जा सकता है। अगर मैं आप में से किसी के भी काम आ सकूं, इतनी ही मेरी कामना है इतनी सी मेरी इच्छा है, मात्र यही एक इच्छा मुझे इस शरीर से जोड़े हुए है और कोई इच्छा नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि आप सब अनावश्यक रूप से दुखी हैं। आपके दुख में जीने का तनाव मे जीने का, अशांति में जीने का कोई सही कारण नहीं है आप केवल अपनी नासमझी के कारण दुख में जी रहे हो यदि मैं अपने को दुखों से दूर कर सकता हूं, तो यहां बैठे एक-एक व्यक्ति अपने को दुखों से मुक्त कर सकता है। सिर्फ समझ की जरूरत है। मेरा मानना है कि धर्म सिर्फ समझ की क्रान्ति है। आपके भीतर जिंदगी के प्रति समझ पैदा हो जाए। आपके भीतर हंसते हुए जीवन जीने की समझ पैदा हो जाए। जीवन एक खेल है सिर्फ एक खेल। जिसमें बहुत उथल-पुथल, उतार-चढ़ाव है कितना महत्वपूर्ण सत्य है कि जीवन एक खेल है। मैं यहां पर कहना चाहता हूं यहां ५० साल, ६० साल के लोग आये हुए हैं, आप सिर्फ अपने जीवन के ५० महत्वपूर्ण कार्य लिखकर जाइयेगा। उन ५० महत्वपूर्ण बातों को लिखकर हमें दे जाइए। आपके छक्के छूट जाएंगे, पसीने छूट जाएंगे। ५० महत्वपूर्ण बातें ५० साल की जिंदगी में नहीं मिलेगी आपको। आप करने की कोशिश करेंगे, आप लिखने की कोशिश करेंगे और आप हैरान हो जायेंगे। ५० साल की जिंदगी में ५० बातें आप लिख नहीं पा रहे हैं। एक दिन की जिंदगी उसको आप इतना महत्वपूर्ण मान लेते हैं। उस दिन की द्घटनाओं को कि आज के दिन का हर कार्य उसको आप इतना महत्वपूर्ण मान लेते हैं, आपकी जिंदगी नरक हो जाती है।
पुण्य का पुरस्कार
जीवन में कभी पाप न करने वाला एक फकीर था। मृत्यु होने के बाद वह सीना तान करके गया कि मैं तो सीधे स्वर्ग में ही प्रवेश कर जाऊंगा। पूरी जिंदगी भर वह संभल कर चला था और निश्चिन्त भी था, इसीलिए उसमें थोड़ी अकड़ भी थी। सीना ताने जब वह स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचा तो दरवाजा बंद था। बाहर दूत खड़ा था। उसने फकीर का रिकॉर्ड देख कर कहा, भाई, यह पहला आदमी मेरी जिंदगी में ऐसा आया है जिसने धरती पर रहकर कोई पाप नहीं किया। अब वहां का द्वारपाल बड़े संकट में पड़ गया कि उसके साथ क्या सलूक किया जाय? उसने कहा, मेरे दोस्त मैं बहुत परेशान हूँ। हमारे स्वर्ग के संविधान के अनुसार जिसने बहुत पाप किया हो उसे तो नरक में भेज दिया जाता है। लेकिन जिसने पाप करके अपने पापों का प्रायश्चित कर लिया हो उसे स्वर्ग में भेजा जाता है। तो उसने कहा कि आप तो इसमें कहीं भी फिट नहीं हो रहे हो। आपने तो कोई पाप ही नहीं किया, तो मैं आपको न स्वर्ग भेज सकता हूँ और न नरक भेज सकता हूँ।
वह बेचारा फकीर बहुत परेशान, बहुत हैरान था। उसकी दुर्दशा को देखकर उस द्वारपाल ने कहा, देखो मैं तुम्हें बारह घंटे का समय देता हूँ, तुम्हें वापस पृथ्वी पर भेज देता हूँ। तुम जाओ और छोटा सा पाप कर लो और उसका प्रायश्चित करके आ जाओ। मैं तुम्हें स्वर्ग भेज दूंगा ताकि हमारी संविधान की व्यवस्था में आप फिट हो जायें। वह फकीर धरती पर वापस आ गया और सोच ही रहा था कि कौन सा पाप करूं? कुछ समझ नहीं पा रहा था। वह किसी गाँव में प्रवेश कर रहा था कि उसने देखा गाँव के बाहर ही एक मकान था। मकान के बाहर ही एक कलि-कलूटी, बदसूरत औरत खड़ी थी। उस फकीर के स्वास्थ्य को देखकर उसके अन्दर इच्छा पैदा हुई कि यह व्यक्ति अगर मेरी ओर आकर्षित हो जाये, मुझे प्रेम करे तो कितना अच्छा होगा। उस औरत को देखकर फकीर ने सोचा कि इस बदसूरत औरत के साथ अगर प्रेमानुभव हो जाता है तो मेरा थोड़ा सा पाप हो जायेगा। फिर मैं उसका प्रायश्चित कर लूँगा। सुनहरा अवसर है, इसको स्वीकार कर लेते हैं। वह फकीर उसके पास गया उसके आमंत्रण को स्वीकार किया और उस बदसूरत औरत के प्रति पूरा प्रेम व्यक्त किया।
जब प्रातः काल फकीर उससे विदा लेने गया, तो उसने सोचा कि मैंने एक पाप कर्म कर लिया है, अब मैं हाथ जोड़कर प्रायश्चित कर लूँगा और स्वर्ग का भागीदार बन जाऊँगा। उस औरत ने कहा कि मेरी जिन्दगी में तुम पहले आदमी हो, जिसने मुझे पूरे प्राणों से प्रेम किया है। मैं भगवान को साक्षी मानकर कहती हूँ कि तुमने जो पुण्य मेरे प्रति किया है, परमात्मा उस पुण्य का पुरस्कार तुम्हें जरूर देगा। अब उस फकीर को काटो तो खून नहीं। उसने कहा कि मैं तो पाप करने आया था और यह औरत कह रही है कि तुमने मेरे प्रति जो पुण्य किया है, परमात्मा उस पुण्य का पुरस्कार अवश्य देगा।
अब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि यह कृत्य उसका पाप कृत्य था या पुण्य कृत्य? बहुत मुश्किल है कह पाना कि कौन सा कृत्य पाप है, कौन सा कृत्य पुण्य है। क्या शुभ है, क्या अशुभ है? समाज नैतिकता के आधार पर व्यवस्था को संचालित करने के उद्देश्य से कुछ नियम बना लेता है, जिससे समाज की व्यवस्था चलती रहे। इसीलिए बचपन से ही जब बच्चा इस धरती पर आता है, तो उसको डराया जाता है कि यह पाप है, यह पुण्य है। यह शुभ है, यह अशुभ है, इसको करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए। केवल इस उद्देश्य से कि जो नियम समाज के व्यवस्थापकों ने बनाये हैं, वे लागू रहें। इससे अधिक उसका और कोई मूल्य नहीं है। हर समाज अपनी व्यवस्था अपने ढंग से बनता है। हमारे हिन्दू समाज में समाज के संस्थापकों ने ऐसा विधान किया कि कभी अपनी बहन के साथ, अपनी चचेरी बहन के साथ विवाह करने की कल्पना ही नहीं कर सकता है। अगर कहीं कोई सोचे भी तो इसे बहुत बड़ा अनर्थ और बहुत बड़ा पाप घोषित कर दिया जायेगा। लेकिन मुस्लमान भाइयों के यहाँ बड़े आराम से भाई बहन की शादी हो जाती है, उनके यहाँ यह पाप नहीं है। समुदाय विशेष के घोषित कर देने से कोई कृत्य पाप या पुण्य नहीं बन जाया करता है, सत्य सारे ब्रम्हांड पर लागू होता है। इसी तरह से कुछ देशों में जैसे कि नीदरलैंड में भाई प्रतीक्षा करता है कि मेरी सगी बहन हो जाये तो मैं उससे विवाह कर लूं, नहीं तो संपत्ति का अधिकार दूसरों को चला जाएगा। बड़ी हीनता के भाव से देखा जाता है उस परिवार को जिस परिवार के बेटे को विवाह करने के लिए बहन नहीं है। तो बहुत मुश्किल हैं पाप, पुण्य का तय कर पाना। कोई कृत्य न पाप है, न कोई कृत्य पुण्य है। बहुत कुछ करने वाले पर और करने की परिस्थिति पर निर्भर करता है। कभी कभी आप पुण्य करना चाहते हैं तो वह पाप हो जाता है और कभी कभी आप पाप करना चाहते हैं तो वह पुण्य हो जाता है। फकीर जान बूझकर पाप करना चाहता था लेकिन कर नहीं पाया, वह पुण्य हो गया। अतः आप होश में आकर कोई पाप नहीं कर सकते हैं। मैं दूसरे शब्दों में कहूं कि अगर आप होश में हैं तो आपके द्वारा किसी प्रकार का पाप हो जाये यह संभव नहीं है। जब भी आप अपना होश खो देते हैं किसी न किसी कारण से, तो जो कृत्य होता है वह पाप हो जाता है। यह मैं पाप-पुण्य की परिभाषा दे रहा हूँ। आप प्रयोग करके देखिये। होश में रहकर आप किसी को गोली मारने की कोशिश करोगे तो कभी नहीं मार पाओगे। आप होश में रहकर कभी चोरी करने की कोशिश करो चोरी नहीं कर पाओगे।
बुद्ध का एक परम शिष्य हुआ करता था आनंद। बुद्ध शिक्षा देते थे कि स्त्रियों के पास जाने में सावधान रहना, नहीं तो तुम्हारे ध्यान की प्रक्रिया भंग हो जाएगी और तुम ध्यान से विमुक्त हो जाओगे। आनंद ने एक दिन अपने गुरु से कहा कि गुरूजी – अगर ऐसी परिस्थितियां बन ही जाती हैं कि मुझे किसी स्त्री के पास रहना पड़े, तो आप बताएं कि विशेष परिस्थिति में औरत के पास ठहर जाऊं या न ठहरूं। गौतम बुद्ध ने कहा, अगर ऐसी परिस्थिति आ जाती है तो तुम रुक जाना। लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि उसकी ओर देखना नहीं, उसके रूप, सौन्दर्य को अपनी निगाहों में प्रवेश मत होने देना। आनंद ने कहा, गुरूजी बहुत मुश्किल है। अगर ठहरना ही पड़ा और कोई न कोई ऐसी परिस्थिति आ ही जाये कि देखना भी जरूरी हो जाये तो औरत को देखना है कि नहीं देखना है? गुरूजी ने कहा, कोई बात नहीं देख लेना। लेकिन एक शर्त है कि उसे स्पर्श मत करना। शिष्य भी शिष्य होता है, जब ह्रदय खोल कर बैठता है, तो गुरु को भी संकट में डाल देता है। मैं यही कहना चाहता हूँ कि आप जो भी करना चाहो करो, केवल होश में रहने की कला सीख लो, फिर पाप आपके हांथों से नहीं होगा, उसका करने वाला मैं रहूँगा, आप नहीं होंगे। इसी प्रकार आप अपने सभी कर्मों को मुझे समर्पित कर दो और स्वयं आनंद और प्रेम से भर जाओ।
रचनात्मकता का विस्फोट
रचनात्मकता, किसी विषय की अपनी व्याख्या को विश्लेषित एवं प्रचलित करने की आपकी योग्यता है.
उदहारणतया, यदि पांच बच्चे किसी मानव का चित्र बनायें तो उन सबका अपना-अपना अलग तरीका होगा। कुछ उसमें सीधी लकीरें ही खींचेंगे तो कुछ उसमें और विस्तार देंगे। यहाँ रचनात्मकता को बेहतर बनाना सिर्फ चित्र को बेहतर बनाना ही नहीं है; यह आपकी कल्पना के साथ आपकी बेहतर समझ की शक्ति को उन्मुक्त करना है। इसलिए यहाँ पर कुछ बातें हैं जो मैं चाहता हूँ कि आप आपने मष्तिष्क में धारण करें:
- आप जो भी करें उत्साह के साथ करें। उत्साहहीन न बनें। यह आपकी रचनात्मकता के फलने-फूलने के लिये अति आवश्यक है।
- पिछली नाकामियों या भविष्य में आने वाले किसी परिणाम की उम्मीद से परेशान न हों। जब आपकी समस्त ऊर्जा भूत और भविष्य से निकल आती है तो आपके भीतर ऊर्जा का एक जबरदस्त विस्फोट होता है। यह ऊर्जा का विस्फोट रचनात्मकता कहलाता है।
- समस्त रचनात्मकता एक प्रकार का खेल है। खेल की तरह इसका आनंद लें। गंभीर लोग किसी प्रकार की रचना नहीं कर सकते। उनका पूरा जीवन गंभीर बने रहने में ही बीत जाता है। इसलिए हर समय खिलाड़ी बने रहना सीखिए। रचनात्मकता उनके अन्दर आती है जो सदैव सरल, कोमल और स्वाभाविक रहते हैं। वे जो करते हैं वही एक रचनात्मक घटना बन जाती है।
- यह वैज्ञानिक रूप से स्थापित और स्वीकार किया जा चुका है कि जब कोई मनुष्य भीतर से आनंदित या प्रेरित अनुभव करता है तो इसके साथ ही उसके मष्तिष्क की ओर ऊर्जा का ऊर्ध्वगामी प्रवाह होता है। यदि वह खिन्न या हतोत्साहित अनुभव करता है तो इसके अनुरूप ही वह ऊर्जा का अधोगामी प्रवाह भी अनुभव करता है। जब किसी की ऊर्जा का प्रवाह ऊर्ध्वगामी होता है उसी समय बुद्धिमत्ता का विस्फोट होता है।
- क्षात्रों के लिये महा मेधा क्रिया ध्यान की एक अति उत्तम युक्ति है क्योंकि यह स्मरण शक्ति की वृद्धि, बुद्धिमत्ता, रचनात्मकता, एकाग्रता एवं आत्मविश्वास को बढ़ाती है। यह क्रिया तनाव और चिंता के स्तर को घटाने में मदद करती है और जबरदस्त ऊर्जा के निस्तार को सुगम करती है क्योंकि जो ऊर्जा तनाव और चिंता में फंसी हुई थी अब वो वहां पर नहीं है। अब यह आपके लिये उपलब्ध है और अब आप और बेहतर रचना कर सकते हैं।
- मानव ऊर्जा को रचनात्मकता की तरफ मोड़ने का महत्तम स्रोत प्रेम है। जितना अधिक आप प्रेमपूर्ण होंगे उतना ही अधिक आपकी ऊर्जा रचनात्मक दिशा में प्रवाहित होने लगेगी।
- अंततोगत्वा, स्वयं की खातिर ऐसा कुछ खोजिये जिसका आप सुविधापूर्वक, आसानी से एवं अनायास ही आनंद ले सकें। अपने लिये कुछ रचनात्मक शौक जैसे पेंटिंग, ड्राइंग आदि चुनें।
ऊपर लिखी हुई बातों का अनुसरण करें और अपनी रचनात्मकता का विस्फोट स्वयं अनुभव करें।