Category Archives: क्रांति सन्देश
आकर्षण का नियम
आकर्षण का नियम, ब्रह्माण्ड का प्राकृतिक नियम है। इसके अनुसार, “लाइक अट्रैक्ट्स लाइक” यानि जब आप किसी विशेष विचार पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो आप उसी तरह के अन्य दूसरे विचारों को अपनी ओर आकर्षित करना प्रारम्भ कर लेते हैं। विचारों में चुम्बकीय शक्ति है और वे अपनी विशेष आवृत्ति (फ्रिक्वेन्सी) पर काम करते हैं। अतएव, वे उस फ्रिक्वेन्सी पर कार्य कर रहे अन्य सभी समान विचारों आकर्षित करना और आपको सर्वथा प्रभावित करना प्रारम्भ कर देते हैं। आप ब्रह्माण्ड के सबसे शक्तिशाली संचरण मीनार (ट्रांसमिसन टावर) हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप नियति को क्या संदेश देना और उससे क्या प्राप्त करना चाहते हैं।
आपका वर्तमान जीवन आपके बीते हुए कल में आप द्वारा की गयी इच्छाओं और विचारों का परिणाम है और, जैसे आपके विचार आज हैं उससे आपका भविष्य निर्मित होगा। “विचार शक्ति का विज्ञान” का सार है कि आप जिस विषय में विचार करते हैं या ध्यान केन्द्रित करते हैं आपको वही प्राप्त होता है, चाहे आप चाहें या न चाहें। एक दूसरे से मिलते जुलते सारे विचार एक ही दिशा में पंक्तिबद्ध होकर वस्तु रूप लेने लगते हैं। निराकार साकार रूप लेने लगता है।
आप जिस भी संबंध में विचार कर रहे हैं वह आपके भविष्य की घटनाओं की योजना बनाने जैसा है। जब आप किसी की प्रशंसा कर रहे हैं तब भी आप योजना बना रहे हैं। जब आप किसी विशेष विषय में चिंता कर रहे हैं तब भी आप योजना बना रहे हैं। चिंता करना आपकी कल्पनाशक्ति से कुछ ऐसा करवाती है जैसा आप अपने जीवन में कभी नहीं होने देना चाहेंगे। इस तरह हर विचार विश्व व्यवस्था या ब्रह्माण्ड को एक निमंत्रण है और आपके विचार शक्ति से निमंत्रण के बिना आपके जीवन में कुछ भी घटित नहीं हो सकता है। और, विश्वास रखें, शक्तिशाली आकर्षण के नियम का कोई अपवाद नहीं है।
कल्पनाओं से परिपूर्ण विचार समान चीजों को वास्तविकता की ओर आकर्षित करते हैं। मतलब आपके विचार अपने साथ की कल्पना की शक्ति से और भी शक्तिशाली हो जाते हैं। विचारों को वास्तविकता में बदलने में कल्पनाएं एक शक्तिशाली भूमिका निभाती हैं। यदि आप किसी ऐसे लक्ष्य के बारे में सोचिए जिसके बारे में आपका उत्साह आधा-अधूरा हो। इस लक्ष्य को पाने में आपको अधिक समय लगेगा। परंतु यदि आप भावनात्मक रूप से पूरी तरह उत्साहित हैं तो आपको लक्ष्य बहुत जल्दी प्राप्त होगा। दूसरे शब्दों में, यदि आपके विचार आपको लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में ले जाने वाले वाहन हैं तो आपकी भावनाएं ईंधन हैं जो इस वाहन को शक्ति देती हैं।
आप अपने जीवन में होने वाली हर घटना के उत्तरदायी हैं। किसी स्तर पर – चेतन या अचेतन, आपने हर आदमी, हर विचार, हर रोग, हर आनंद और दर्द के हर क्षण को अपने जीवन में आकर्षित किया है। आप जो भी विचार करते हैं और जो भी अनुभव करते हैं वह बिना किसी अपवाद के आपके जीवन में घटित हो जाता है। यह होता ही है चाहे भले ही आप ऐसा न चाहते हों।
अपने जीवन को बेहतर तरीके से नियंत्रित करने के लिये, अपनी दिनचर्या को विभागों में विभाजित करने का प्रयास कीजिये। इसका सबसे अच्छा तरीका है की अपनी घरेलू जिंदगी, स्कूल की जिंदगी, निजी जिंदगी, और पारिवारिक जिंदगी को अलग-अलग कर दें। ध्यान रखेँ अपनी प्राथमिकताओं को इनके साथ न उलझाएं।
यह पृथक्करण आपकी कई तरीकों से मदद करेगा। यह आपके तनाव के स्तर को कम करने में, आपकी विचार शक्ति को बढ़ाने में, आपको और प्रभावशाली और उपजाऊ बनने में मदद करेगा। इस अलगाव की सबसे विशेष बात यह है की यह आपको स्वाभाविक रूप से परिपक्क्व बनाएगा।
वर्तमान में जीवन जीने का विज्ञान
भरोसा चमत्कार करता है, भरोसा जादू करता है। ये मूर्तियों की रचना आध्यात्म के वैज्ञानिकों ने क्यों की? ताकि मूर्ति में तुम परमात्मा की प्रतिष्ठा करके मूर्ति के माध्यम से ही तुम उस परिणाम को प्राप्त कर सको जो समर्पण के माध्यम से प्राप्त होता है। समर्पण ही सभी धर्मों का सार है। मैं तो सारी दुनिया को सन्देश देता हूँ कि समर्पण ही धर्म है। और समर्पण का अगर अभ्यास अगर आपको हो जाय तो समर्पण के चमत्कारिक परिणाम हो सकते हैं। समर्पण घटते ही जो दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना घटती है वह है अहंकार का विसर्जन। तुम सब कुछ छोड़ देते हो कि करने वाला मैं नहीं हूँ, करने वाले गुरुदेव हैं, करने वाले प्रभु हैं, परमात्मा हैं, तब अहंकार धीरे-धीरे विसर्जित होने लगता है और अहंकार ही तो सब दुखों का मूल है। अहंकार के दो पैर हैं। अहंकार का पहला पैर है – मैंने जो किया, मैं जो था, मैंने जो बनाया – यानि ‘भूतकाल’ और अहंकार का दूसरा पैर है – मैं कल क्या कर सकता हूँ, मैं कल क्या करूंगा, मैं कल क्या बनूँगा, मैं कल क्या हो जाऊँगा – यानि ‘भविष्यकाल’। इन दोनों पैरों पर अहंकार खड़ा होता है। अगर इस भूतकाल और भविष्यकाल की चिंता हट जाय तो अहंकार गिर जाता है, यानि अगर तुम वर्तमान में आ जाओ तो इसके दोनों पैर गिर गए। अगर तुम वर्तमान में जीने लगे तो अहंकार विसर्जित हो जाता है और इसका उल्टा भी सही है कि अगर तुम अहंकार को विसर्जित कर दो, अहंकार को छोड़ने का अभ्यास कर लो सद्गुरु के प्रति समर्पण के माध्यम से तो निश्चित रूप से तुम वर्तमान में जीने लगोगे। भूत की चिंता ख़त्म हो जायेगी, भविष्य की चिंता ख़त्म हो जायेगी – इसके ख़त्म होते ही तुम वर्तमान में आ जाओगे और वर्तमान में आ जाना ही परमानन्द को प्राप्त कर लेना है।
गुरु और शिष्य का संबंध बनता है – श्रद्धा व समर्पण से
ज्ञान के आकर्षण के कारण गुरु के प्रति तुम्हारे हृदय में आदर का भाव बनता है। महीने, दो महीने बाद संभव है, तुम्हें पता चले कि तुम्हारा गुरु तो इतना ज्ञानी सचमुच में नहीं है, जितना तुम समझते थे, तो तुम्हारा आदर कम हो जाएगा, आदर क्षीण हो जायेगा। अगर तुमने देखा कि तुम्हारा गुरु बड़ा तपस्वी है, योग करता है, प्राणायाम करता है और इसीलिए तुम्हारे चित्त में गुरु के प्रति आकर्षण पैदा हो गया तो तुम समझोगे कि तुम्हारा गुरु बड़ा ज्ञानी है। लेकिन महीने दो महीने बाद तुम्हें पता चले कि कोई खास तपस्या नहीं, कोई खास साधना नहीं है, गुरु शीर्षाशन करना ही नहीं जानता है। जिस योग और साधना के कारण गुरु के प्रति आदर था तुम्हारे चित्त में, वह आदर का भाव तुम्हारे भीतर से चला जायेगा।
इस तरह छोटे-मोटे जो आदर के भाव होते हैं उससे गुरु पैदा नहीं होता है तुम्हारे जीवन में। गुरु पैदा होता है – श्रद्धा से। श्रद्धा किसी कारण से पैदा नहीं होती है। जब हृदय का हृदय से मेल होता है तभी किसी के प्रति श्रद्धा अकारण पैदा होती है।
जब हृदय का संबंध गुरु से बन जाता है, जब आत्मा का संबंध गुरु से हो जाता है तब गुरु और शिष्य का संबंध शुरू हो जाता है। वह गुरु और शिष्य के बीच का संबंध होता है। शेष सारे संबंध कितने ही गहरे क्यों न हों, वे मन के और शरीर के होते हैं। बाप-बेटे का संबंध शरीर से ज्यादा गहरा संबंध नहीं है। तुम्हारे अस्तित्व के तीन तल हैं – शरीर का तल, मन का तल, और सबसे सूक्ष्म आत्मा का तल। ये संबंध तीन तल पर होते हैं।
दुनिया में सारे संबंध जैसे – बाप बेटे का संबंध, पति पत्नी का संबंध या भाई बहन का संबंध हो, शरीर से बनने वाले संबंध हैं। लेकिन तुम्हारे और गुरु के बीच का संबंध शरीर के तल का नहीं है, मन के तल का संबंध नहीं है। ये तो आत्मा का आत्मा से, हृदय का हृदय से उत्पन्न होने वाला संबंध है। तभी तो सबको छोड़कर उनके चरणों में समर्पण कर देते हो।
जो तुम बेटे के लिये नहीं कर सकते, भाई बहन के लिये नहीं कर सकते, वह सब तुम गुरु के लिये कर सकते हो। मैं उससे भी अद्भुत बात बताता हूँ कि जो माँ-बाप बेटे के लिये नहीं कर सकता है जो भाई बहन एक दूसरे के लिये नहीं कर सकते हैं, उससे भी कई गुणा अधिक, अनंत गुणा ज्यादा, क्षण-प्रतिक्षण गुरु शिष्य के प्रति करने के लिये तत्पर रहता है। गुरु चाहता है कि मेरे प्रिय शिष्य को सारी सम्पदा मिल जाय। वह बांटने के लिये, झोली भरने के लिये सदा तैयार रहता है। गुरु तो एड़ी चोटी एक कर देता है, पसीना बहा देता है कि मेरी सारी सम्पदा मेरे प्रिय शिष्य को मिल जाय। मेरे प्राण, मेरी आत्मा, मेरे शिष्य को मिल जाय।
यही गुरु कि करुणा है, यही गुरु का गुरुत्व है और यही गुरु कि महिमा है। वह अपना सब कुछ चौबीस घण्टे अपने प्रिय शिष्य में उलेड़ने को तत्पर रहता है। इसलिए तुम्हें ठोकता पीटता है, संभालता है, सब कुछ करता है कि कैसे अपने को तुम्हारे भीतर उलेड़ दे? गुरु देता है तो छोटी-मोटी चीज नहीं देता है कि-
“गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान,
तीन लोक की सम्पदा, सो दे दीन्ही दान।”
गुरु के समान देने वाला है ही नहीं। ब्रम्हा, विष्णु, महेश भगवान भी नहीं दे सकते है। कोई नहीं दे सकता। केवल स्वामी सुदर्शनाचार्य दे सकते हैं। आत्मा दे दी, अपने प्राण दे दिये, और कहा – बेटे अपना शरीर भी तुम्हें दे देता हूँ। अब और देने को क्या बचता है? वे तो साक्षात परमात्मा हैं। यह मत सोचना कि गुरु तुम्हारे जैसा है, क्योंकि उसे भी पसीना है, उसे भी बुखार आता है, उसे भी सर्दी-जुकाम होता है और उसे भी भूख-प्यास लगती है। फिर तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं बात आ ही जाती है कि गुरु को ब्रम्हा, विष्णु, महेश मानना मूर्खता की बातें हैं। क्योंकि वह भी तुम्हारे जैसा चलता है, तुम्हारे जैसे पहनता है और तुम्हारे जैसा बोलता है। लेकिन तुम्हारे मन में गुरु को परमात्मा स्वीकार करने का भाव बन गया तो फिर सब कुछ सारा वेद, सारा पुराण, सारी बाइबिल, सारी कुरान सब तुम्हारे भीतर उतार जायेगी।
पाप और पुण्य
पाप और पुण्य की मैं एक ही परिभाषा करता हूँ कि तुम जिस कृत्य में पूरी पूरी ऊर्जा के साथ उतर गए वो पुण्य कृत्य हो गया। अगर किसी को आपने पूरा-पूरा प्रेम किया तो वो पुण्य कृत्य हो गया। और अगर आपने अधूरा-अधूरा कार्य किया तो वह पाप कृत्य हो गया। सन्यासी मैं उसी को कहता हूँ जो प्रतिपल जी रहा है, वर्तमान में जी रहा है, पूरी ऊर्जा से जी रहा है। जहाँ है, जैसे है उसी में जी रहा है। लेकिन तुम हमेशा भविष्य में जीते हो, भविष्य में उलझे रहना तुम्हारे समस्त दुखों का कारण बन जाता है।
सद्गुरु साक्षी राम कृपाल जी
द गुरु पत्रिका, जुलाई २०१२ अंक