धर्म समझ की क्रांति है
जो अस्तित्व तुम्हें दे रहा है उसे स्वीकार करो, दुख आये उसे स्वीकार करो, यदि तुम उसे स्वीकार कर लेते हो, उससे संघर्ष नहीं करते हो तो दुख भी सुख में बदल जाता है। अन्यथा तुम्हें क्या पता कि सुख क्या है दुःख क्या है। जिसे चाहते हैं उसे पाने के लिए दौड़ते रहते हैं दिन और रात पर वह नहीं मिलता। और जिसे सुख समझकर पकड़ते हो, मालूम चलता है कि वो सुख है ही नहीं। जैसे मछली दौड़ती है मछुए की कटिया के पीछे, चारा समझकर उस पर झपटती है, पर बाद में पता चलता है कि वह तो कांटा था। तुम्हारे सारे सुख इसी तरह हैं। मिलते ही पता चलता है कि इसमें तो कांटे छिपे हैं। तुम हमेशा भ्रम में जीते हो। और इसी आशा में जीये चले जा रहे कि जो तुम्हें चाहिए वो आज नहीं तो कल मिल जाएगा। ऐसे ही भागे जा रहे हो, जैसे आसमान और जमीन, जहां मिलते हैं दूर से देखने पर ऐसा लगता है, जैसे पकड़ लोगे। लेकिन पास में जाने पर मालूम पड़ता है कि अभी उतनी ही दूरी है। ऐसे ही निरंतर तुम भागे जा रहे हो। तुम्हें मिलता हुआ लगता है, पर मिलता नहीं हैं। तुम्हें प्रतीति हो जाये, यह एहसास हो जाये कि यह सुख नहीं है। इसी का तुम्हें विज्ञान बताना चाहता हूँ। जिसे समझने में तुम सौ साल लगा दोगे तो भी नहीं समझ पाओगे। तुम्हें निचोड़ बता रहा हूं, तुममे समझ पैदा करना चाहता हूं कि धर्म समझ की क्रांति है।
मुरारी लाल सम्राट के यहाँ का नौकर था। उसके शयन कक्ष की सफाई करता था। उसके मन में यह विचार आया कि कितना आरामदायक, सुगंधित, गद्देदार बिस्तर है। सम्राट का नौकर एक दिन अपने लोभ को न रोक सका। देखा आस पास में कोई नहीं है। उसने सोचा कि सम्राट के बिस्तर पर लेटा जाये। लोट-पोट होकर सो लेता है। फिर बादशाह की तरह लेट जाता है और कहते हैं कि थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई। पंद्रह मिनट के बाद उसे झकझोर कर उठा दिया गया और इस महापाप के लिए सम्राट के सामने सभा में बुलाया गया और सज़ा दी कि पचास कोड़े मारे जायें। जैसे ही पहला कोड़ा लगता है मुरारी लाल जोर से खिलखिला कर हंस पड़ता है। दूसरा कोड़ा लगता है तो भी मुरारी लाल खिलखिलाकर हँसता रहता है। लेकिन जब आठ-दस कोड़े लगे तो मुरारीलाल की पीठ लहू-लुहान होने लगती है, फिर भी रोने के बजाय मुरारी लाल हँसता रहता है। तब सम्राट कहते हैं, ‘रोको, पहले इससे हंसने का कारण पूछो। मेरे द्वारा दी गई सज़ा का अपमान क्यों कर रहा है यह?’ मुरारी लाल ने कहा, ‘हुज़ूर, मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूं और न ही अपमान कर रहा हूं, मैं तो यह हिसाब लगा रहा हूं कि सिर्फ १५ मिनट पहले आपके बिस्तर पर सोने से इतनी बड़ी सज़ा मिली और आप इस बिस्तर पर पिछले चालीस वर्षों से सो रहे हैं तो आपका कितना बुरा हाल होगा’। सम्राट की तरह तुम सबको लगता है कि तुम भी सुख में जी रहे हो। लेकिन तुम जिसको सुख समझ रहे हो, वह एक तरह का कोढ़ है, जिसका तुम्हें पता नहीं चलता। इसीलिए सद्गुरु ने तुम्हें राह बताने की कोशिश की है कि कैसे तुम्हें दुखों से बचाया जाये, कैसे तुम्हें उससे छुड़ाया जाये। एक ही तो उद्देश्य है मनुष्य का, एक ही तो लक्ष्य है कि दुखों से कैसे छुटकारा मिले? और सुखों को कैसे प्राप्त किया जाए? इसी लक्ष्य को पाने के लिए संतों ने अनेक प्रकार के उपाय बताये, इसी के लिए संतों ने परमात्मा को पैदा किया। किसी ने कहा कर्म योग मार्ग, किसी ने कहा भक्ति योग मार्ग, किसी ने कहा कि ज्ञान योग मार्ग। कभी-कभी मुझसे पूछा जाता है ‘गुरुजी! आप का कौन सा मार्ग है? आप कर्म योगी हो, ज्ञान योगी हो अथवा भक्ति योगी हो?’ आज मैं आपसे अपने जीवन के अनुभव का सार बताना चाहता हूं। जीवन के चार आयाम हैं। सबसे पहले जो आयाम परिधि पर है, बिल्कुल बाहर-बाहर वह कर्म का क्षेत्र है। वहाँ पर मनुष्य कर्म को ही जीवन मान लेता है। जीवन भर कर्म करता रहता है। सबसे बाहर कर्मों का जगत है और थोड़ा भीतर आओ तो उसके बाद आते हैं विचार। विचार करने के भी पहले आता है एक और जगत उसे कहते हैं भाव जगत। प्रेम, स्नेह, श्रद्धा, करुणा ये भाव पीछे रहते हैं और अत्यंत भीतर बिलकुल केंद्र की ओर आओ तो एक यह भाव आता है कि एक चेतना है, यह चेतना ही मनुष्य के जीवन का केंद्र है, चेतना ही आत्मा का तल है जो इन सब चीजों से अछूता है, साक्षी है, वो ही सिर्फ देख रहा है, तुम्हारा मूल स्वरूप, आत्मस्वरूप, सिर्फ साक्षी। इसके इर्द-गिर्द तीन जगत व भाव जगत में प्रेम है, घृणा है, स्नेह है, दूसरा जगत विचार का जगत है और सबसे बाहर है कर्म का जगत। और चौथी मंजिल है तुम्हारा आत्म स्वरूप, तुम्हारी चेतना। तीन तो है मार्ग और चौथी है मंजिल। यानि तुम्हें मूल स्वरूप साक्षी मिल जाए, तुम अपने मूल स्वरूप में आ जाओ। मेरे जीवन का यही उद्देश्य है कि तुम्हारी परमात्मा से प्रतीति हो जाये।
Posted on जुलाई 30, 2015, in गुरु वाणी and tagged आचार्य राम कृपाल, धर्म समझ की क्रांति है. Bookmark the permalink. टिप्पणी करे.