झुकना आसान नहीं है

जब तक सद्गुरु जीवित हैं तब तक तुम उसमे भगवान की अनुभूति करने में समर्थ नहीं हो पाते हो।  जब गुरु जिंदा होता है तब तुम उसकी संभावना नहीं देख पाते हो।  लेकिन जब गुरु पूर्ण हो जाता है, शरीर त्याग देता है, तब तुम मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हो।  वह पूजा निरर्थक है।  सद्गुरु जिंदा है, उसमे परमात्मा की सद्भावना करो, उसमे परमात्मा को देखो।  वही सद्गुरु साक्षात अनंत ऊर्जा को तुम्हारे भीतर प्रवाहित कर देगा।  यही आध्यात्म का विज्ञान है।  मेरे प्रेमियों, मूर्ति के सामने तुम झुक जाते हो बड़े आराम से क्योंकि तुम्हारे अहंकार को चोट नहीं लगती है।  तुम सोचते हो कि यह तो मूर्ति है, सब इसके सामने झुक रहे हैं।  मूर्ति के सामने झुकना बहुत आसान हो जाता है।  लेकिन जीवंत गुरु के सामने झुकना कठिन हो जाता है, क्योंकि अहंकार को थोड़ा चोट पहुँचती है।  झुकना आसान काम नहीं है।  दुनिया में सबसे कठिन काम झुकना है।  तुम सोचते हो कैसे झुकें इस आदमी के सामने जो मेरे जैसा ही तो है।  लेकिन झुके बिना दुनिया में कुछ मिलता नहीं है।  न तो इस जगत में और न ही उस जगत में।  इसीलिए गुरु सबसे पहले झुकने की कला सिखाता है तुम्हें।  अहंकार का विसर्जन करने की कला सिखाता है।

गुरु को चुन पाना बड़ा कठिन काम है।  बहुत से प्रेमी मुझसे पूछा करते हैं कि किसको गुरु मान लिया जाय।  मैं कहना चाहता हूँ कि गुरु का चयन कर पाना तुम्हारे लिये सम्भव नहीं है।  गुरु का चयन करने तुम चलोगे तो अपनी बुद्धि से ही चयन करोगे।

जिसका चयन करने तुम जा रहे हो, उसके बारे में निर्णय करोगे कि इसका आचरण ठीक है, इसकी वाणी ठीक है, इसका चाल चलन ठीक है या नहीं।  यानि तुम अपनी बुद्धि से गुरु के व्यक्तित्व का फैसला करोगे।  शिष्य अपने गुरु के व्यक्तित्व का निर्णय नहीं ले सकते है।  पहले ही चरण में विरोधाभास हो गया।  जब तुम अपने संस्कारों के मुताबिक अपनी बुद्धि का प्रयोग करोगे तो गुरु का चयन नहीं कर पाओगे।  जैसा कि अगर तुम जैन परिवार में पैदा हुए हो तो किसी ऐसे आदमी को ही गुरु मानने को तैयार होगे जो सूरज के डूबने से पहले ही खाना खा लेता हो।

अपनी बुद्धि की कसौटी से, अपने संस्कारों की कसौटी से गुरु को खोजोगे तो गुरु नहीं मिलेगा।  तुम गुरु का चयन नहीं कर सकते हो।  तुम केवल उपलब्ध रहो और उनके सान्निध्य में रहो।  तुम उनके साथ सत्संग करो, उनकी सुनो, उनके समीप जाओ।  उठते-बैठते, सुनते-सुनते सान्निध्य प्राप्त करते-करते तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम्हारा हृदय उस गुरु की ओर खींचता चला जा रहा है।  वह गुरु तुम्हारे हृदय पर छाने लगेगा और प्रेम घटित हो जाएगा।  तुम्हारे पैर अपने आप उसी गुरु की ओर बढ़ते चले जाएंगे और गुरु की कसौटी यही है।  जिस गुरु के सान्निध्य में रहने से तुम्हारे भीतर शांति व आनंद की बंसी बजने लगे वही तुम्हारा सद्गुरु है।  सद्गुरु तुम्हें स्वयं चुन लेता है।  तुम्हें केवल उपलब्ध रहना चाहिए।

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About अजय प्रताप सिंह

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Posted on अगस्त 26, 2013, in प्रवचन and tagged , , . Bookmark the permalink. टिप्पणी करे.

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