हृदय खोलो, गुरु को जानो
मेरे प्रेमियों, फिर धर्म तुम्हारे भीतर पैदा हो जायेगा। तुम जहां खड़े हो जाओगे वहीं काबा, वहीं काशी, वहीं कैलाश हो जायेगा। क्योंकि तुमने साक्षात परमात्मा की झलक अपने गुरु में देख ली है। ऐसा न होता तो सद्गुरु पैदा ही न होता, परमात्मा पैदा ही नहीं होता। महावीर पैदा ही न होता।
महावीर शरीर रूप न लेते तो वह मरते भी नहीं। सद्गुरु केवल शरीर ही नहीं है, सद्गुरु तो मिट्टी का दिया है, लेकिन ज्योति मिट्टी की नहीं है। तुम्हें सद्गुरु में अगर दिया दिखाई दे तो तुम अंधे हो। तुम्हें सद्गुरु में मिट्टी का दिया ही नहीं, वह ज्योति भी दिखाई देने लगे तो तुम्हारी साधना सार्थक है, तुम्हारी आध्यात्मिकता सार्थक है। इसीलिए कबीरदास जी कहते हैं कि सगुरु तो मिट्टी का जलता हुआ दिया है। लेकिन जलते हुए दिये में तुम्हें ज्योति भी देखनी है। मिट्टी का दिया तो शरीर है जिसमे वह ज्योति जो उसके अंदर प्रकाशवान है, वही परमात्मा है। उस ज्योति में दुर्गंध नहीं है, उस ज्योति में पसीना नहीं है, उस ज्योति को भूख प्यास नहीं लगती। वह अद्भुत है, वह अलौकिक है और वह तुम्हारे लिये ही जलती है। शरीर तो मिट्टी का दिया है। दिया जलेगा तो तेल की भी जरूरत पड़ेगी। दिया थकेगा भी, दिया हारेगा भी, टूटेगा भी, मरेगा भी। लेकिन वह ज्योति अमर है, वह मरती नहीं है, अखण्ड है। निरंतर जलती रहती है।
उस अखण्ड ज्योति को स्वामी सुदर्शनाचार्य ने 13 दिसंबर 1999 को इस आध्यात्मिक घर में प्रज्ज्वलित कर दिया है। वह ज्योति जल रही है जो तुम्हें आलोकित करती रहेगी। और तुम्हारे जीवन में शती और आनंद रूपी अनंत ऊर्जा को भरती रहेगी। जब तुम्हें किसी से प्रेम हो जाता है, किसी के प्रति तुम श्रद्धा से भर जाते हो, तब तुम्हें उसका शरीर नहीं दिखाई देता है, तब तुम्हें उसके व्यक्तित्व और अस्तित्व का बोध होता है कि उस शरीर के अलावा भी उसमें कुछ है। जब किसी व्यक्ति के प्रति तुम प्रेम से भरे होते हो फिर उस व्यक्ति का शरीर नहीं होता है। उससे भी अद्भुत कुछ दिखाई देगा और अनुभव होगा। आज जो क्रांतिकारी सूत्र आपको दे रहा हूँ, वह विस्फोटक है। परम विस्फोटक है। जिससे मुझे सब कुछ मिला है, इस जीवन की सारी सम्पदा इसी सूत्र से मिली है। जिसके प्रति तुम्हारे हृदय में श्रद्धा जग जाय, उसके शरीर के अलावा भी किसी अस्तित्व का बोध तुम्हें होने लगता है। चाहे उससे भी ज्यादा सुंदर शरीर मिल जाय तो भी तुम्हें वह चीज नहीं मिलती है।
जैसे कहते हैं मजनू लैला के पीछे दीवाना था। दिन रात, चौबीसों घण्टे, उसे कोई होश ही नहीं था। मजनू दीवाना हो गया था, पागल हो गया था। उसकी कहानियाँ नगर मेन फैलती गई। मजनू के दीवानेपन, उसके बावरेपन और उसके पागलपन की रोज नई-नई कहानियाँ सुनाई पड़ने लगीं। उस नगर के सम्राट ने मजनू को बुलाया और कहा कि मेरे अंतःपुर मेन एक से एक युवतियाँ हैं। एक से एक सुंदर युवतियों को बादशाह ने मजनू के सामने खड़ा कर दिया और कहा – तू क्यों लैला जैसी साधारण युवती के पीछे पागल होता जा रहा है? इनमें से कोई एक चुन ले, कोई एक देख ले और लैला को भूल जा। कहते हैं कि एक एक युवती के पास मजनू गया, एक-एक को देखा और निहारा। सैकड़ों युवतियों के देखने, निहारने और निरीक्षण करने के बाद बादशाह के पास आकर कहता है – हुजूर, मैंने सबको देख लिया, लेकिन इनमें से कोई लैला नहीं है। यानि शरीर के अलावा कोई ऐसी वस्तु थी जो उन सैकड़ों युवतियों में मजनू को नहीं मिली जो लैला में थी। लैला का वह अस्तित्व, वह व्यक्तित्व जो उसके शरीर के अलावा भी कुछ था, जिसके प्रति वह प्रेम करता था, वह अस्तित्व और आत्मा मजनू को सैकड़ों युवतियों में दिखाई नहीं दी।
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