हृदय खोलो, गुरु को जानो

“गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान,

तीन लोक की सम्पदा, सो दे दीन्ही दान।”

गुरु के समान देने वाला है ही नहीं।  ब्रम्हा, विष्णु, महेश भगवान भी नहीं दे सकते है।  कोई नहीं दे सकता।  केवल स्वामी सुदर्शनाचार्य दे सकते हैं।  आत्मा दे दी, अपने प्राण दे दिये, और कहा – बेटे अपना शरीर भी तुम्हें दे देता हूँ।  अब और देने को क्या बचता है? वे तो साक्षात परमात्मा हैं।  यह मत सोचना कि गुरु तुम्हारे जैसा है, क्योंकि उसे भी पसीना है, उसे भी बुखार आता है, उसे भी सर्दी-जुकाम होता है और उसे भी भूख-प्यास लगती है।  फिर तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं बात आ ही जाती है कि गुरु को ब्रम्हा, विष्णु, महेश मानना मूर्खता की बातें हैं।  क्योंकि वह भी तुम्हारे जैसा चलता है, तुम्हारे जैसे पहनता है और तुम्हारे जैसा बोलता है।  लेकिन तुम्हारे मन में गुरु को परमात्मा स्वीकार करने का भाव बन गया तो फिर सब कुछ सारा वेद, सारा पुराण, सारी बाइबिल, सारी कुरान सब तुम्हारे भीतर उतार जायेगी।

गुरु परमात्मा स्वरूप है

गुरु परमात्मा स्वरूप है।  इसीलिए गुरु में परमात्मा की उद्घोषणा करो, भावना करो।  जैन ग्रन्थों में लिखा है कि महावीर को पसीना नहीं आता था।  लेकिन स्वाभाविक रूप से, व्यावहारिक रूप से यह सच नहीं है।  तुम्हें समझाया कैसे जाय कि तुम उन्हें परमात्मा स्वरूप मानो।  इसीलिए जैन ग्रन्थों ने समझाया है कि महावीर को पसीना नहीं आता है।  वह मल-मूत्र का त्याग नहीं करते थे।  ऐसा जैन ग्रन्थों में है।  ऐसा तो तभी संभव होता जब वे प्लास्टिक के बने होते अन्यथा उन्हें महकब्जीयत हो जाती।  यह भी संभव नहीं है कि उनको भूख प्यास नहीं लगती थी।  लेकिन ग्रन्थों में ऐसा कहा गया है तुम्हें समझाने के लिये।  ताकि तुम्हारे भीतर यह भाव पैदा हो कि वह परमात्मा है।

जब तक यह भाव पैदा नहीं होगा तब तक तुम्हारा हृदय नहीं खुलेगा। और जब तक हृदय खुलेगा नहीं, तब तक वह अनंत ऊर्जा तुम्हारे भीतर भर नहीं पाएगी।  इसीलिए मैं कहता हूँ कि सब कुछ होगा।  उसे भूख भी लगेगी, पसीना भी आयेगा, प्यास भी लगेगी, सर्दी-जुकाम भी होगा, बुखार भी होगा, और इतना सब कुछ देखते हुए भी उस सद्गुरु में परमात्मा को देखने का सामर्थ्य पैदा हो जाय तो शिष्यत्व की महाक्रांति तुम्हारे भीतर हो जायेगी और धर्म के मार्ग पर चलने के लिये किसी संप्रदाय में ढिंढोरा पीटने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

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