हृदय खोलो, गुरु को जानो
जिस दिन तुम शिष्य हो गये, उस दिन पाने के लिये कुछ बचता ही नहीं है। सब कुछ अपने आप बरस जाता है। सुदर्शनाचार्य में उस अखण्ड, अनंत ऊर्जा रूपी परमात्मा को देखा है। वह स्वामी सुदर्शनाचार्य मेरे लिये हाड़-मांस का शरीर ही नहीं है, उसके भी ऊपर, उसके भी पार साक्षात परम्ब्रंह है। जिस दिन तुम्हें उनके चरणों में परमात्मा की छाया की अनुभूति हो जायेगी, उसी दिन तुम्हारे भीतर शिष्यत्व की महाक्रांति घटित हो जायेगी। इतना ही सारा आध्यात्म है।
मैं रोज-रोज तरह-तरह की भाषा और शब्दों से आपको समझाता हूँ। लेकिन उसका विस्फोटक अणु तो बस इतना ही है कि अपने गुरु में ब्रम्ह हो देख लो, परमात्मा को देख लो। उसके बाद कुछ बचता ही नहीं। मेरे प्रेमियों, मैं पूरे हृदय से इस बात को कहता हूँ। कबीर दास ने अपने अनुभवों को सँजोया और बड़े ही प्रीतिकर शब्दों में उन्होने कहा:-
गुरु मानुस कर जानते, ते नर कहिये अंध, महादुखी संसार में, आगे जम के बंद।।
अर्थात जो व्यक्ति गुरु को मनुष्य के रूप में देखते हैं, वे मनुष्य अंधे है। इस महादुखी संसार में ऐसे ही लोग महा दुख झेलते हैं, संसार के बंधन में बंधते जाते हैं। कभी उनको शांति, आनंद रूपी परमात्मा का अनुभव नहीं होता है। और जन्म-मरण के बंधन से मुक्त नहीं होते हैं। कितनी अद्भुत बात कही है कबीर दास ने:-
कबीरा खड़ा बजार में, लिये लुकाठा हाथ, जो घर बारे आपनो, चले हमारे साथ।
अर्थात हाथ में लुकाठा लिये कबीरदास आवाज देते रहे, चिल्लाते रहे, पुकारते रहे, लेकिन बहरे लोग, अंधे लोग, लँगड़े लोग कोई उनको सुनने के लिये तैयार नहीं हुआ। सद्गुरु भी हमेशा तुम्हें आवाज देता रहा है, चाहे कबीर के रूप में, चाहे नानक के रूप में, चाहे कृष्ण के रूप में, चाहे क्राइष्ट के रूप में। आज भी मैं तुम्हें आवाज देता हूँ। एक ही मंत्र है – जो गुरु में उसी को देखने की काला सिखा दे वही गुरु है। गुरु तुम्हारे जैसा दिखता है, तुम्हारे जैसा खाता है, पीता है, चलता है, कपड़े पहनता है, बोलता है वैसे जैसे तुम बोलते हो। मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि गुरु मनुष्य तो है, लेकिन मनुष्य के रूप में वह सब कुछ है, जो सामान्य मनुष्य की श्रेणी में नहीं आता है। तुम्हारा गुरु के प्रति आदर का भाव भी समाप्त हो जाएगा। जैसे किसी युवती को तुमने इसलिए चाहा है कि वह देखने में सुंदर लगती है। मान लो, उसके चेहरे पर चोट लग गई, वह बीमार पड़ गई, उसके चेहरे की सुंदरता जाती रही तो तुम्हारी चाह खत्म हो जायेगी। क्योंकि तुमने सुंदरता के कारण ही उसे चाहा था। ऐसे ही तुम गुरु को चाहते हो इसलिये कि गुरु के पास आते हो, गुरु को सुनते हो, तुम्हें लगता है कि गुरु बड़ा ज्ञानी है।
गुरु और शिष्य का संबंध बनता है – श्रद्धा व समर्पण से
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