इस जगत में एक-एक वस्तु परमात्मा की अभिव्यक्ति है। जिसे तुम निर्जीव समझते हो वह भी चेतना प्राप्त है और इसीलिए हमेशा कहता रहा हूँ कि पहले आप स्वयं से प्रेम करना शुरू कर दो, फिर प्रकृति से, उस अनंत विस्तृत आकाश के चाँद तारों और फूलों से प्रेम करो। इसीलिए तो ऋषियों-मनीषियों ने आपको बताया कि सरिता के कल-कल प्रवाहमान जल को परमात्मा का पावन रूप समझ कर इसका पूजन करो। गंगा को माँ कहो। पेड़ पौधों की पूजा के पीछे बहुत ही गंभीर विज्ञान है। जब आप उनका पूजन करोगे तो उनके प्रति आपके ह्रदय में प्रेम भरेगा। किन्तु जब आप अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को, अपनी माँ को प्रेम से भर नहीं सकते हो तो आप धनुर्धारी राम और भगवान कृष्ण के प्रति क्या प्रेम करोगे, “चैरिटी बेगिंस ऐट होम”, सब कुछ अपने घर से शुरू करो। आपने भौतिक व आध्यात्मिक घर से शुरू करो, प्रेम करने की कला सीखो। प्रार्थना अपने आप प्रकट होना शुरू हो जायेगी। जब आप प्रेम करोगे तो अद्भुत शांति आपके चित्त में व्याप्त होने लगेगी। बिना प्रेम के चित्त में शांति नहीं आ सकती है, बिना शांति के जीवन तनावमुक्त नहीं हो सकता है, और तनाव मुक्त हुए बिना कोई पूजा प्रार्थना संभव ही नहीं हो सकती है। आप कहीं न जाओ, जो आपके संपर्क में आये उसको आनंद से भर दो। ऐसे प्रीतिकर शब्दों का प्रयोग करो कि वह प्रसन्न हो जाए। जब आपके ह्रदय में स्वतः संगीत पैदा होने लगे, जब आपका ह्रदय नृत्य करने लगे तब समझो आप प्रेम से भर रहे हो।
आपके चेहरे में, आपके चित्त में और आपके ह्रदय में हमेशा उदासी छाई रहती है, हमेशा दुःख से पीड़ित रहते हो। दुःख से आक्रांत और पीड़ित आत्मा कभी प्रेम नहीं कर सकती, इसीलिए आपको सद्गुरु की आवश्यकता है। गुरु कहता है कि आप सारी निराशा, सारे दुःख, सारे तनाव छोड़ दो और हो जाओ निर्मल। हो जाओ सरल, हो जाओ निर्दोष चित्त वाले। आप अपना जीवन आनंद और प्रेम से भरो, अपने जीवन के दुःख आप मेरे लिये छोड़ दो। अगर सच्चे ह्रदय से आप उन्हें मेरे ऊपर छोड़ दें तो फिर आपके जीवन में शांति और आनंद के अलावा कुछ आएगा ही नहीं। आपकी पूजा, प्रार्थना सार्थक होने लगेगी। आज मनुष्य के मन बिलकुल पत्थर हो गया है, कारण यही है कि कोई हिन्दू हो गया, कोई मुस्लमान हो गया है, कोई सिख हो गया, कोई ईसाई हो गया है। सब सम्प्रदाय की दीवारों में कैद हो गये हैं। हिन्दू हैं, मुस्लमान हैं, सिख हैं, ईसाई है, लेकिन इंसान नहीं हैं। आप सबसे पहले इन्सान बनो, और इन्सान आप तभी बन सकते हो, जब खुले ह्रदय से एक-एक प्राणी के प्रति करुणा और प्रेम के भाव से भर जाओगे। याद रखो, जो आप दोगे वही आपकी ओर लौट कर आयेगा।
यूनान का एक बहुत बड़ा विद्वान था डायोनिज्म, वह दिन की रोशनी में भी अपने पास लालटेन रखता था। जो आदमी उसके संपर्क में आता था उसको दिन की रोशनी में भी अपनी लालटेन से देखने की चेष्ठा करता था। लोग कहते थे, तुम सूरज की रोशनी में लालटेन लेकर क्या देखते हो? डायोनिज्म कहता था, देख रहा हूँ कि असली आदमी है या नकली। जब उसकी मृत्यु का क्षण आया तो लोगों ने डायोनिज्म से पूछा कि तुमने लालटेन से खोजते-खोजते अपना सारा जीवन लगा दिया, असली आदमी की शक्ल कहीं दिखाई दी? डायोनिज्म ने बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही कि धरती पर लोगों के दुःख का यही यही सबसे बड़ा कारण है। पूरे जीवन भर मैंने खोजा, लेकिन आदमी के भीतर आदमी की शक्ल मुझे कहीं नहीं दिखाई दी। लेकिन इतनी गनीमत है कि मेरी लालटेन सुरक्षित है, नहीं तो ये आदमी मेरी लालटेन भी चुरा ले जाते। यूनान की बात थी, लालटेन बची रह गयी, अगर अपने हिंदुस्तान की बात होती तो लालटेन भी गायब हो गयी होती।
धार्मिकता का गुण है – आपके ह्रदय में आनंद भरे, आपके ह्रदय का आनंद दूसरे के प्रति प्रेम से भरे। ऐसा करोगे तो आपको कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, आपका जीवन ही बदलने लगेगा। जिसको भी देखो अपनी नज़रों से उसके अन्दर प्यार की रोशनी फैलने दो। प्रार्थना का अर्थ है – अपना ह्रदय खोल कर रख दो, कृतज्ञता के भाव से, अहो भाव से भर जाओ उस परमात्मा के प्रति। परमात्मा अर्थात जगत की एक-एक वस्तु, एक-एक व्यक्ति के प्रति ह्रदय खोलकर प्रेम से भर जाओ। वही प्रेम का निवेदन है उसके चरणों में। प्रेमियों! आपकी भ्रान्ति है, आप बिना वजह अपने को संतुष्ट करके रह जाते हो। आपने रामायण का अखण्ड पाठ करा दिया और सोचते हो, परमात्मा खुश हो रहा है। इसके बजाये अपना ह्रदय खोलकर एक-एक वस्तु के प्रति प्रेम से भर जाओ, आप पूरे ह्रदय से आनंदित होकर आपने ह्रदय का प्रेम उड़ेलने की कला सीख लो, अपने आप आपको लगेगा कि आपका जीवन परिवर्तित हो रहा है। अगर आप दूसरों के प्रति प्रेम से भरते हो तो दूसरों की ओर से भी शुभकामनाएं आपको किरणों के माध्यम से प्रस्फुटित होती हैं। उन किरणों से आपके भीतर आपने आप ऊर्जा भरती है। प्राणों में आप जीवंत होने लगते हो। आपके चेहरे का सौन्दर्य बढ़ने लगता है। आप अपनी झूठी प्रार्थनाएं बंद कर दो। बस प्रेम को उड़ेलना शुरू करो – चारों ओर, प्रकृति की ओर, पेड़ पौधों की ओर, जीव जन्तुओं की ओर, प्राणी मात्र की ओर, भाई बहनों की ओर। आप देखना आपकी पूजा सार्थक होने लगेगी। देखिये कितना बड़ा चमत्कार है, आज अपना ह्रदय खोलकर देखें कितना अद्भुत चमत्कार है। छोटा सा बीज अंकुरित होता है, फिर उसमे पत्ते निकलते हैं, कपोलें निकलती हैं, फिर उसमें पुष्प निकलते हैं और फिर उस पुष्प से सुगंध निकलने लगती है। प्रकृति का, उस परमात्मा का कितना अद्भुत चमत्कार है। इस आश्चर्यजनक घटना को देखो ह्रदय खोलकर और उस परमात्मा की कृति के प्रति आनंद के भाव से भर जाओ। उसके इस करिश्मे के प्रति उसे धन्यवाद दो। आप देखो कितने अद्भुत लाखों-करोणों तारे आसमान में हैं। सभी चलायमान हैं, गतिशील हैं लेकिन कोई एक-दूसरे से टकराते नहीं हैं। कितनी अद्भुत घटना है। दिन हो रहा है, रात हो रही है, प्रातः काल सूरज उग रहा है। कितनी अद्भुत छटा बिखर रही है धरती पर। पर आप कितने नादान हो, उस अद्भुत छटा को आपने प्राणों में भरने नहीं देते। इस प्रयोग को करने से पहले उस प्रकृति के विराट अस्तित्व के प्रति आपका निवेदन एक अद्भुत प्यार के रूप में झंकृत होना शुरू हो जायेगा। बंधी-बंधाई प्रार्थना आपको नहीं देना चाहता। मैं चाहता हूँ कि आप अपनी प्रार्थना खुद पैदा करें। प्रार्थना आपने भीतर से आने दो। सभी महापुरुषों ने कहा है कि कोई परमात्मा तब तक आपके जीवन में आने वाला नहीं है जब तक आप प्रेम से भरते नहीं हो। “पोथी पढि पढि जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े से पंडित होय।”
लेकिन आप उलझे हुए हो नाना प्रकार के उपद्रवों में। इतना सरल सूत्र है ढाई अक्षर प्रेम का। प्रेम को अवतरित होने दो अपने घर के आँगन में, वही परमात्मा है। आप कोशिश करो कि आपके जीवन का एक भी क्षण घृणा, ईर्ष्या और प्रपंच में न बीते। कठिन काम नहीं है प्रेमियों, मैं कहता हूँ कि यह सत्संग नहीं मधुशाला है, पियो। मेरे शब्दों को ह्रदय में अन्दर तक जाने दो, वे ही आपके जीवन में वह सब कुछ कर देंगे जो कुछ मैं कराना चाहता हूँ। बस पीते जाओ मेरे शब्दों को। ये मेरे परम पूज्य गुरुदेव के शब्द हैं, मेरे शब्द नहीं हैं। आपके भीतर जरूर क्रांति पैदा कर देंगे। सत्संग में बैठे-बैठे ही क्रांति होती है। कुछ करना नहीं पड़ता है। इसीलिए सत्संग की इतनी महिमा गायी गयी है। ‘ बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिन सुलभ न सोई।’ इससे बड़ा कुछ है ही नहीं। सत्संग अपने में पूजा प्रार्थना ही है। अपने में ध्यान ही है। आज के इस जगत में जितनी परेशानी है, जितने उपद्रव हैं, उनको समाप्त करने का सबसे बड़ा साधन है ध्यान।
ध्यान क्या है? ध्यान है – वर्तमान में जीने की कला। इस समय आप मेरे शब्दों को सुन रहे हो तो आप अतीत काल से अपने को हटा लो। अतीत की घटनाओं से सम्बन्ध तोड़ लो। भविष्यकाल के सपनों में भी मत उलझो। केवल मेरे शब्दों को वर्तमान में उपस्थित होकर आपने भीतर जाने दो। केवल मेरे शब्द सुनोगे, ध्यान में रहोगे, तो ध्यान की अद्भुत घटना घटेगी। यही आपके जीवन में क्रन्तिकारी परिवर्तन कर देगी। अभी एक साहब मेरे साथ आ रहे थे, वे मुझे बता रहे थे कि साहब, मैं इतना सब तो करता हूँ लेकिन मुझे क्या प्राप्त हो रहा है, क्या अन्य्भव हो रहा है, इसको तो आप ही जान सकते हैं। मैं कैसे बता सकता हूँ? उन्होंने बहुत मत्त्व्पूर्ण बात कही। और मैं भी यही बात आपसे कहना चाहता हूँ कि आपके जीवन में भी कुछ घटित होना शुरू हो गया है, लेकिन थोड़ा-थोड़ा। लेकिन आपको भले ही पाता न चले, लेकिन मैं सद्गुरु को साक्षी मानकर कह रहा हूँ, मुझे पता चलने लगा है। पर आप थोड़ा धैर्य के साथ अपनी निरंतरता को बनाये रखें तो बहुत जल्दी आपको भी पता चलने लगेगा। हमेशा कहता रहा हूँ कि कितना भी कठिन कार्य हो, कितना भी असंभव कार्य हो, अगर निरंतर धैर्य के साथ थोड़ा-थोड़ा किया जाए तो जादुई चमत्कार पैदा कर देता है। जैसे झरने से निरंतर झरना हुआ पानी कठोर से कठोर चट्टान को तोड़-तोड़ कर रेत बना देता है, ऐसे ही थोड़ा धैर्य, थोड़ी सी निरंतरता के साथ अगर आप मेरे साथ में खोते रहे, सत्संग कि मधुशाला में डुबकी लगाते रहें तो क्रांति का होना अनिवार्य है।
अपनी अंतरात्मा से निकले शब्द ही ईश्वर के प्रति असली प्रार्थना है। पूजा प्रार्थना को आपने ह्रदय में सीधे आने दो। ऐसी प्रेम पाती लिखो, जिसके शब्द आपके अपने हृदय से आ रहे हों। दूसरों से उधार लिये गये शब्दों से प्रेम पाती मत लिखो, प्रेम निवेदन मत करो। इस सम्बन्ध में मुझे टॉल्सटाय, जो एक रूसी लेखक थे, उनका एक किस्सा याद आ रहा है। तीन जगत प्रसिद्द अनपढ़ फकीर हुए है, उन फकीरों की बड़ी ख्याति होने लगी। उस देश की सबसे बड़ी चर्च का प्रधान पादरी था, उसके लिये बहुत बड़ी चुनौती हो गयी। लोगों की भीड़ चर्च से हटकर उन तीन फकीरों के झोपड़ों की ओर जाने लगी। प्रधान पादरी ने देखा कि चर्च का हिसाब-किताब डांवा-ड़ोल होता जा रहा है। उसे चिंता हुई कि इन फकीरों से कैसे निपटा जाय। हमारा तो चर्च ही खतरे में पड़ जायेगा। ईसाईयत ही खतरे में पड़ जायेगी। इसी सन्दर्भ में बता दूं कि ईसाई संत भी उसे कहते हैं जिसे चर्च का सर्टिफिकेट मिल जाए। प्रमाणपत्र के बिना कोई ‘सेंट’ नहीं कहा जा सकता है। सेंट एन्थ्रीनो को आपके प्राचीन ऋषियों-मनीषियों ने संत कहा। संत और सेंट लगता है एक ही जैसे हैं। लेकिन संत का अर्थ है सत्य ही जिसका अंत हो। सत्य ही जिसने स्वीकार लिया हो। सत्य ही को जिसने आकार कर लिया हो, साकार कर लिया हो वही संत है। लेकिन सेंट का अर्थ इसका मूल बिलकुल दूसरा है। सुनने में संत और सेंट एक से लगते हैं लेकिन मूल दूसरा है। सेंट की मौलिक उत्पत्ति सैंक्शन से है। यानी जिसको स्वीकृति मिल गयी, वह सेंट है।
जब भीड़ का चर्च में आना बंद हो गया और सब फकीरों को ओर उमड़ने लगे, तो उस प्रधान पादरी को बड़ी चिंता हुई। वह बड़े क्रोध से भर गया और उन फकीरों की तलाश में निकल पड़ा। तीनों सिद्ध फकीर झील के उस पार रहते हैं। उसने सारे धार्मिक लिबास, स्वर्ण आभूषणों को धारण किया और मांझी को लेकर झील को पार करके उन सिद्ध फकीरों के पास जा पहुंचा। वहां देखा कि झाड़ के नीचे तीनों फ़कीर बैठे हुए हैं। पादरी ने उनसे पूछा कि तुम लोग कौन हो, यहाँ क्या कर रहे हो? उन लोगों ने कहा, सरकार हम तो इस गाँव ले गंवार लोग हैं। यहाँ अपनी प्रार्थना कर लेते हैं। और तो कुछ करते नहीं। पादरी कहने लगे, तुम तो संत बने हुए बैठे हो। क्या है तुम्हारी प्रार्थना में? उन्होंने कहा, हमें क्या मालूम प्रार्थना क्या होती है। हम तो प्रभु को याद कर लेते हैं, उनका गुणगान कर लेते हैं। पादरी कहने लगा, ये सारी भीड़ तुम्हारे इर्द-गिर्द पड़ी रहती है। इनको बेवक़ूफ़ बना रखा है तुमने। वे बोले सरकार, आपकी बड़ी कृपा है कि आप आ गये। इस भीड़ से हमें बचाओ। इन्होंनें तो हमारा चैन भी छीन लिया है। हम तो प्रभु की प्रार्थना कर लिया करते थे, लेकिन ये सारे लोग यहाँ पर इकठ्ठा हो गये हैं, इससे हमारी प्रार्थना में व्यवधान पड़ रहा है। पादरी ने पूछा, तुम क्या प्रार्थना करते हो? उन बेचारों ने कहा कि हम तीनों फकीरों ने प्रार्थना खुद ही बना ली है, क्योंकि हमें आती नहीं थी। पादरी ने कहा तुमने जघन्य अपराध किया है, क्षमा नहीं किया जा सकता है। लेकिन तुम विनम्र हो, मेरे चरणों में हो, इसीलिए तुम्हारी बनाई हुई प्रार्थना के अपराध से मैं तुम्हें क्षमा कर देता हूँ। तुम बाइबिल कि प्रार्थना रट लो। कभी-कभी तुम हमारे चर्च में आ जाया करो, तुम्हारे कल्याण हो जायेगा। लेकिन इससे पहले तुम बताओ कि तुमने कौन सी प्रार्थना बनाई है। उन्होंने कहा हुजूर हमें तो कुछ मालूम नहीं है। यह सुना था कि ईसाईयों में कहते हैं, परमात्मा के तीन रूप हैं, इतना ही हमने सुना है। हिन्दू कहते है, ब्रम्हा, विष्णु, महेश। वैसे हमने भी सुना परमात्मा के तीन रूप हैं। हमने भी यही प्रार्थना बनाई, ‘तुम भी तीन हम भी तीन, हम पर कृपा करो’ यही प्रार्थना है हमारी। प्रधान पादरी ने कहा, चलो आज मैं परमात्मा कि इच्छा से तुम्हारे प्राणों को क्षमा करते हुए तुम्हें समझा देता हूँ। उसने बाइबिल की वह प्राचीन काल की प्राचीन भाषा में लम्बी प्रार्थना एक बार सुनाई, दो बार सुनाई, तीन बार सुनाई। बेचारे तीनों रटने की कोशिश करने लगे। बोले बड़ी कृपा की आपने जो आप हमारे पास आये और आपने परमात्मा की सच्ची प्रार्थना बतायी, हम याद कर लेते हैं। उन्होंने याद करने की कोशिश की लेकिन अनपढ़ लोग, कैसे याद कर पायें? कैसे समझ पायें? तीन बार, चार बार रटा। पादरी ने कहा, अब इसे याद कर लो। किसी से भूल-चूक हो जाए, तो तीनों आपस में समझ लेना। इतना कहकर पादरी झील के उस पार अपने मांझी और नाव को लेकर जाने लगा। पादरी लगभग झील की बीच धारा में पहुँच चुका था, इस बीच वे बेचारे तीनों लड़ने लगे। एक कहता है कि वह जो पादरी बता गया है, उसमें यह लाइन थी, दूसरे ने कहा नहीं यह लाइन थी, तीसरे ने कहा इसमें से प्रार्थना की असली पंक्तियाँ कौन सी हैं? दौड़े-दौड़े तीनों किनारे पर गये, देखते हैं कि मांझी को लिये हुए पादरी झील के मंझधार में पहुँच गया है। वे बेचारे परमात्मा की प्रार्थना की असली पंक्तियाँ जानने की लालसा से झील में कूद पड़े और अपनी जो निजी प्रार्थना थी ‘तुम भी तीन हम भी तीन, हम पर कृपा करो’ यही प्रार्थना करते करते झील में पानी के ऊपर चलते हुए तीनों ने जाकर पादरी को पकड़ लिया। नाव पर पादरी ने देखा कि ये तीनों अपनी प्रार्थना को करते करते आपने पाँव से झील में दौड़ते चले आ रहे हैं, पादरी तो आश्चर्य से भर गया। वह चिल्ला कर कह रहे थे – प्रभु, मुझे बताओ कि प्रार्थना कहाँ से शुरू होती है? यह कह रहा है कि प्रार्थना यहाँ से शुरू होती है, इन्होंने बताया कि इन शब्दों से शुरू होती है। वह प्रधान पादरी उनके चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा कि मेरे प्रेमी मित्र, तुम्हारी प्रार्थना ही असली प्रार्थना है क्योंकि वह तुम्हारे ह्रदय से आ रही है। तुम्हारी अपनी है, तुम्हारे भाव अपने भाव जगत से पैदा हुए हैं। उस पादरी ने कहा, आज से मैं भी यही, तुम्हारी वाली प्रार्थना ही करूंगा। और उसने बाइबिल कि प्रार्थना को त्याग दिया।
प्रेमियों! आपकी प्रार्थना भी जीत सकती है, बस उसे सीधे अपने ह्रदय से आने दो। प्रार्थना जीवन का विज्ञान है, और उस विज्ञान को प्राप्त करने के लिये कला चाहिए। विज्ञान इन अर्थों में है कि अगर आप प्राणी मात्र के लिये प्रेम से भरोगे तो अद्भुत जादुई किरणें उनकी ओर से आपकी ओर आवृत्त होंगी, और आपको उतनी ही ऊर्जा से भरेंगी। झूठे शब्दों से प्रार्थनाएं कभी सार्थक नहीं होतीं। और इसीलिए झूओठे शब्दों वाली प्रार्थनाएं कभी आपके जीवन में अष्ट सिद्धि नौ निधि कि बात तो बड़ी दूर की है, छोटे-छोटे लाभ भी आपको नहीं दे पाती हैं। लेकिन कभी आपने इस बारे में सोचा ही नहीं। प्रार्थना सीखने की जरूरत नहीं हैं। आप जैसे कई लोग मुझसे कहते रहते हैं कि आप मुझे कोई ऐसी प्रार्थना बता दो, जिसको मैं करता रहूँ और सब कुछ मिलता रहे। मैं बताऊँगा जरूर लेकिन पहले मैं आपकी जमीन तैयार कर लेना चाहता हूँ। आपकी भाव भूमि तैयार हो जाये तब मैं उसमें बीज डालना उचित समझता हूँ। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि प्रार्थना सीखी नहीं जाती, प्रार्थनाएं सीखने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रार्थना तो आप अपने आप सीख जाते हो वैसे ही जैसे प्रेम सिखाया नहीं जाता है, आप प्रेम करना आपने आप सीख जाते हो। वैसे ही आप प्रार्थना सीख जाओगे।
मेरे प्रेमियों! प्रार्थना करने की क्षमता तो आपके भीतर ही है। बस एक ही सूत्र देता हूँ की अपने प्रेम को फैलने दो अपने चारों ओर। कोई सीमा प्रेम के बंधन में नहीं होनी चाहिए। अपने प्रेम को फैलने दो। अपनी पत्नी को, अपने बेटे को, अपनी माँ को और अपने पिता को प्रेम करो। अपने से जुड़े एक-एक प्राणी से प्रेम करो। कभी ऐसा मत सोचो कि आप केवल हिन्दू को ही प्रेम करोगे, या भारतीय को प्रेम करोगे, कभी ऐसी सीमा रेखा मत खींचो। दुनिया में कोई आपका दुश्मन नहीं है। प्रेमियों, मैत्री भाव से भरो। भीतर से नहीं भरते हो, तो ऊपर से दिखाओ। यही मानकर दिखा दो कि यह सद्गुरु का आदेश है। यहाँ बैठे हुए एक-एक प्रेमी को सद्गुरु का आदेश है। उस आदेश का पालन केवल धर्म के नाम पर ही कर लो, परमात्मा के नाम पर कर लो, सद्गुरु के नाम पर कर लो, मेरे नाम पर कर लो। आप ऊपर से, शब्दों से, प्रेम दिखा सकते हो। जितना भी कर सकते हो, नाटक तो कर सकते हो। मैं तो कहता हूँ बार-बार के नाटक मात्र करने से ऐसा जादू पैदा हो जायेगा, ऐसी शांति और आनंद की किरने पैदा होने लगेंगी जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। करके देखो, मैंने करके देखा है और पाया है। आप भी करके देखो, कुछ अद्भुत चीज पाओगे। जो इतने बर्षों से पूजा प्रार्थना करते हुए आपने नहीं पाया है, वह पाने लगोगे और उसी क्षण पाओगे। मैं कभी भविष्य और अतीत की बातें नहीं करना चाहता हूँ, मैं तो कहता हूँ आप अभी करो, अभी पाओगे। भूल जाओ पुनर्जन्म को, भूल जाओ अगले जन्म को, उसके बारे में सारी बातें कपोल कल्पना ही हैं। केवल विश्वास के लिये कही सुनी बातें हैं। मैं तो कहता हूँ उस जादू को देखो जो वर्तमान में आपके जीवन में घटित हो रहा है।
आपके विचार से मुझे आत्मस्फूर्णा मिलती है। बहोत ही अनुठे रूप से आपने दर्शाया। पर एक बात आपके सामने लानी चाहिए की आपने दर्शाया की
अगर अपने हिंदुस्तान की बात होती तो लालटेन भी गायब हो गयी होती।
आपका यह वाक्य दर्शाता है कि हिंदुस्तान आपकी नजर में क्या है। एक्शन और रिएक्शन प्रकृति का नियम है। आपने शायद हिंदुस्तान को सही नजर से नहीं देखे। माफ करिए मेरा उद्देश्य आपको क्रोस करना नहीं है परन्तु आपकी यह बात मुजे अच्छी नहीं लगी।
अश्विन जी यदि आपकी भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो हमें खेद है लेकिन यह हिंदुस्तान के बारे में गुरुदेव की राय नहीं है यह एक उदाहरण मात्र है केवल यह दर्शाने के लिए कि हम लोगों को अभी और समझदार होना बाक़ी है।
आपके विचार से मुझे आत्मस्फूर्णा मिलती है। बहोत ही अनुठे रूप से आपने दर्शाया। पर एक बात आपके सामने लानी चाहिए की आपने दर्शाया की
अगर अपने हिंदुस्तान की बात होती तो लालटेन भी गायब हो गयी होती।
आपका यह वाक्य दर्शाता है कि हिंदुस्तान आपकी नजर में क्या है। एक्शन और रिएक्शन प्रकृति का नियम है। आपने शायद हिंदुस्तान को सही नजर से नहीं देखे। माफ करिए मेरा उद्देश्य आपको क्रोस करना नहीं है परन्तु आपकी यह बात मुजे अच्छी नहीं लगी।
अश्विन जी यदि आपकी भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो हमें खेद है लेकिन यह हिंदुस्तान के बारे में गुरुदेव की राय नहीं है यह एक उदाहरण मात्र है केवल यह दर्शाने के लिए कि हम लोगों को अभी और समझदार होना बाक़ी है।
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