प्रेम ही परमात्मा है। जहाँ-जहाँ प्रेम वहां-वहां परमात्मा। परमात्मा केवल प्रेम रूप है। और प्रेम का अनुभव आनंददायक होता है, इसे केवल ह्रदय से ही समझा जा सकता है। इतनी अद्भुत, इतनी अनंत ऊर्जा निहित है प्रेम की शक्ति में। वही प्रेम ऊर्जा ही परमात्मा का रूप धारण कर लेती है। फिर भी इस सहज साध्य प्रेम की ऊर्जा को आप प्राणों में नहीं भर पाते हैं। सारा आध्यात्म, सारे संत -महात्मा, सारे ऋषि-मनीषी आप को परमात्मा का साक्षात्कार कराने को ही आध्यात्म का प्राण सूत्र बताते रहे हैं। सभी धर्म, धार्मिक संप्रदाय एक ही बात की चेष्ठा करते हैं कि वह प्रेम रुपी परमात्मा आप के जीवन में प्रकट हो जाये। लेकिन आप कभी इस अमृत तत्व को आपने जीवन में प्रकट करने कि साधना नहीं करते हैं। मंदिर-मस्जिद चले जायेंगे, जाने कहाँ-कहाँ के तीर्थ स्थल, काबा, काशी, कैलाश, मक्का, मदीना हर जगह घूमेंगे। गंगा नहायेंगे, लेकिन प्रेम कि गंगा में नहाने की कभी चेष्ठा नहीं करेंगे जो हर जगह, हर क्षण बह रही है।
आपकी जीवन शैली बन जाय कि प्रेम का अमृत आपके प्राणों में भरने लगे। आपके जीवन में संघर्ष ख़त्म हो। चौबीस घंटे आप युद्ध करते रहते हो। अगर किसी दूसरे से नहीं लड़ते हो तो बैठे-बैठे अपने आप से अपने मन से ही युद्ध करते रहते हो। युद्ध करने कि, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध में जीने की आपकी जीवन शैली बन गयी है; वही आपको प्रेम से, परमात्मा से दूर करती है। परमात्मा के निकट आने का एक ही रास्ता है कि तुम्हारे प्राणों में और मन में संघर्ष का भाव और संघर्ष की विभीषिका का अंत हो। किसी की आलोचना न की जाय, किसी का दोष न निकाला जाय। संघर्ष हीन, विवाद हीन जीवन जी लिया जाय।
जिस व्यक्ति की आलोचना करना चाहते हो, उसके दोष प्रकट करना चाहते हो, उसकी आलोचना मत करो, उससे विवाद मत करो। लेकिन यदि उसके सुधर के लिये जरूरी है उसकी बुराई को प्रकट करना तो पहला सूत्र है कि आलोचना व्यक्त करने से पहले उसे इस बात का अहसास दिला दो कि आप उसके सच्चे मित्र हैं। आपने अपनी बात मित्रता के ढंग से प्रारंभ कर दी, तो 99 प्रतिशत सत्य है कि वह व्यक्ति गंभीरता से अपने आप में सुधर लाने कि चेष्ठा करेगा। कहते हैं कि एक बूँद मधु से जितनी मक्खियाँ पकड़ी जा सकती हैं उतनी एक गैलन सिरके से नहीं पकड़ी जा सकती। मित्रता से, मधुरता से, शुभेच्छा व्यक्त करके आप मक्खी रुपी दोष को प्रकट कर देंगे तो आप का कार्य सिद्ध हो जायेगा और अगला व्यक्ति आप से नाराज भी नहीं होगा।
लेकिन किसी व्यक्ति का ह्रदय यदि आपके प्रति दुर्व्यवहार से भरा हुआ है या आप उससे ईर्ष्या या शत्रुता का भाव रखते हैं तो आप दुनिया भर के तर्क देकर उसे समझाना चाहें , वह आपकी किसी भी बात का विश्वास नहीं कर सकता। इसीलिए किसी से भी अपनी बात मनवाना चाहते हैं तो सबसे पहले उसके प्रति अपना प्रेम प्रकट कीजिये। फिर उसे आपकी बात समझने में जरा भी देर नहीं लगेगी। अगर दोष ढूंढना अनिवार्य है तो निष्कपट भाव से उसकी प्रशंशा कीजिये। उसके बाद उसकी बुराई को उसके सामने कहिये, वह बड़े ध्यान से सुनेगा और निश्चित रूप से स्वयं को बदलने की कोशिश करेगा। किसी व्यक्ति को बदलना इस धरती पर सबसे कठिन काम है। आप अपने सिद्धांत बदलने को तैयार नहीं हो, आप कुछ भी बदलने को तैयार नहीं होते हो। इसीलिए गुरु का काम सबसे कठिन काम होता है। वह आपको पूरा का पूरा बदल देना चाहता है, और जो गुरु बदल दे, वही सद्गुरु होता है। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसके भीतर अच्छाई न हो, कोई भी एक गुण न हो। आप उसकी कोई एक अच्छी बात जो बहुत प्रीतिकर लगती है उसे उजागर करते हुए उसकी प्रशंशा कर दो। फिर अगले चरण में जो उसका दोष है, उस बात को कहो वह बड़े ध्यान से आपकी बात सुनेगा और अपने व्यक्तित्व को उस दिशा में बदलने का प्रयास करेगा।
लोगों की भूलों की ओर उनका ध्यान परोक्ष रूप से आकर्षित करिए। सीधे मत कहिये कि आपने बहुत बड़ी गलती कर दी है। परोक्ष रूप से कहो, अप्रत्यक्ष रूप से कहो। असर ज्यादा होगा और वह व्यक्ति आप से घृणा भी नहीं करेगा। एक डिपार्टमेंटल स्टोर का मालिक अपने डिपार्टमेंटल स्टोर पर पहुँचता है और देखता है कि डिपार्टमेंटल स्टोर के सेल्समैन बाहर खड़े होकर आपस में बातें कर रहे हैं। एक महिला स्टोर में भीतर इंतज़ार कर रही है कोई आये और सामान दे। मालिक ने स्वयं उस महिला को सामान निकाल कर दे दिया और सेल्समैन से कहा कि यह सामान मैंने उसे दे दिया है। आप इसको पैक करके दे दीजिये। इतना कहकर वह आगे चला गया, वह कुछ बोला नहीं। भविष्य में उस डिपार्टमेंटल स्टोर के सेल्समैन कभी भी लापरवाही करते नहीं पकड़े गये। यानी लोगों की भूलों की ओर इशारा प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष रूप से कीजिये।
दूसरों की भूलों को दिखाने से पहले, अपनी भूलों की चर्चा ईमानदारी से कीजिये। यह बहुत विस्फोटक सूत्र है। जैसे ही आप किसी व्यक्ति से कहते हैं की आपकी यह गलती है, आपको इसे सुधारना चाहिए, वह उसी क्षण आपके प्रति शत्रुता का भाव पैदा कर लेता है। यदि कोई व्यक्ति गलती कर रहा है तो उसके सम्बन्ध में भी ईमानदारी से आप कहिये कि कभी आप से भी ऐसी गलतियाँ हुआ करती थीं। और आप का अनुभव कहता है कि इन गलतियों में उलझना ठीक नहीं है, इनसे बचना जरूरी है। आप कह सकते हैं कि बेटे, मैं आग में हाथ डालकर देख चुका हूँ, आग हाथ को जला देती है। यह बात बच्चे के ह्रदय को छुएगी। लेकिन आप अगर उसके सामने महात्मा बनकर बैठे रहेंगे, डंडा लेकर उसे सुधारना चाहेंगे तो पूरी जिंदगी आप उसे सुधार नहीं पाएंगे। अपनी भूलों को स्वीकार करने की कला को सीखिए, यह आपके व्यक्तित्व को और मूल्यवान बना देती है।
कोई भी व्यक्ति पसंद नहीं करता है कि वह किसी दूसरे के हुक्म से काम करे। यह बड़ी मनोवैज्ञानिक बात है। इसीलिए जिसको भी सुधारना है, जिसको भी अपने विचारों के अनुकूल करना है, जिससे भी आपको जीवन में काम लेना है, उसको कभी सीधा आदेश मत दीजिये। आप उसको प्रस्ताव दीजिये, सुझाव दीजिये, उससे प्रश्न पूछिए। इन माध्यमों से आप उसे उस कार्य को करने के लिए प्रेरित कीजिये, यही एक तरीका है। दूसरे व्यक्ति को अपनी लाज बचाने का अवसर दो। उसको इतना ज्यादा दीवार की ओर मत धकेलते चले जाइए कि वह आप का शत्रु बन जाये और आपके जीवन में संघर्ष का बीज डाल दे। किसी को इतना मत रगड़ो, किसी को इतना मत दबाओ कि वह भीतर से टूट जाय और उसे लाज बचाने का अवसर ही न मिले। कोई व्यक्ति यदि अपने कार्य में थोड़ा भी सुधार करता है, थोड़ी भी उन्नति करता है तो उसकी उस प्रगति के, उसके उस छोटे कदम की प्रशंशा कीजिये।
कोई व्यक्ति कुछ करना चाहता है, कुछ सीखना चाहता है, लेकिन आप उसे पहले ही हतोत्साहित कर देते हैं। अक्सर आप कहने लगते हैं कि हटो, भागो, तुम्हारे बस की बात नहीं है। मुरारीलाल की पत्नी बड़ी मुश्किल से संगीत सीखने का इंतजाम कर सकी थी। जितनी देर वह राग अलापती थी, उतनी देर मुरारीलाल बाहर रहते थे। एक दिन परेशान होकर पत्नी ने पूछा, आखिर जब मैं संगीत की साधना करती हूँ तो तुम बाहर क्यों चले जाते हो? मुरारीलाल ने कहा, “मैं इसीलिए टहलता हूँ कि पड़ोसी लोग यह न सोचें कि मैं तुम्हारी पिटाई कर रहा हूँ।” क्षण प्रतिक्षण छोटे-छोटे प्रगति के क्षणों की सराहना कीजिये। यदि आपने किसी व्यक्ति को काम सौंपा है, अगर वह उसे थोड़ा सा भी करके लाया है, तो उसकी सराहना करके देख लीजिये। जादू हो जायेगा, वह व्यक्ति आपके लिए उतना महत्त्वपूर्ण कार्य कर देगा, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
एक लड़का अपने जीवन में केवल चार साल स्कूल में गया था। उसके पिताजी जेल में थे। उस लड़के को मजबूरी में एक बोतल बनाने की फैक्ट्री में लेबल लगाने का काम मिला था। लेकिन उस लड़के के भीतर कहानी लिखने का बहुत शौक था। वह हिम्मत नहीं कर पाता था कि उसे कैसे छपवाए और उसे किसको दे? तो जहाँ-जहाँ पत्रिकाएँ और अख़बार छपते थे, वहां-वहां के पोस्ट बॉक्स में वह अपनी कहानी रात में जाकर चुपचाप डाल आता था। ऐसा वह महीनों करता रहा, लेकिन उसकी कोई कहानी छपी ही नहीं। महीनों बाद उसकी एक कहानी छप गयी। एक संपादक ने उसको बुलाकर उसकी बड़ी सराहना की। वह लड़का इतना प्रोत्साहित हो गया कि और लिखने के लिए जान लगाकर मेहनत करने लगा। यही लड़का आगे चलकर चार्ल्स डिकन्स के नाम से महान उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्द हुआ। जिसके उपन्यास आज भी सारी दुनिया में पढ़े जा रहे हैं। यह एक छोटे से प्रोत्साहन से हुआ।
आपके भीतर विविध प्रकार की शक्तियां हैं लेकिन उनसे काम लेने का अभ्यास आपका व्यर्थ जाता रहा है। आप अपनी उन शक्तियों से काम नहीं लेते हैं। वे शक्तियां ऐसी की ऐसी पड़ी रह जाती हैं। उनका पूरी जिंदगी उपयोग नहीं हो पाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि उस शक्ति को जगा देना ही बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। गुरु सोई हुई शक्तियों को जगाता है, वह आपके सिर पर हाथ फेरता है। आपका हाथ पकड़ता है। आपके भीतर कुछ टटोलता है, कुछ खोजता है, कुछ डुबकी लगता है और वह बता देता है कि आपकी सम्भावना क्या है? आप क्या कर सकते हो? यही तो गुरु का काम है। और जो आप कर सकते हैं, उसी शक्ति को जगा देता है। उसी दिशा में आपके कदम चला देता है। आप उन चीजों को, उस सम्पदा को पाने लगते हो, जिसकी आपने कभी कल्पना ही नहीं की थी। वाही गुरु आपका सद्गुरु है।
दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिससे आपका शत-प्रतिशत हर बात का मतभेद हो या असहमति हो। कभी-कभी ऐसा होता है कि आपको खुद अपनी गलती महसूस होती है कि आपको, “नहीं” नहीं करना चाहिए था। कोई अहम तत्व है आपके भीतर, आत्मगर्व तत्व है जो आपकी, “नहीं” नहीं को “हाँ” कहने के लिए इंकार करता है। जब नहीं कहना चाहता है तो आपके भीतर सारे तंतु, सारा शरीर, मज्जा, सारी इन्द्रियां एकत्रित होकर एक साथ “नहीं” की रासायनिक क्रिया करती हैं। तब आपके मुंह से नहीं निकलता है। उस “नहीं” को “हाँ” में बदलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी आपका शरीर पीछे हटने लगता है। आपको पाता नहीं चलता है। यह एक स्वाभाविक क्रिया है। एक चायनीज कहावत है, “जो धीरे धीरे नरमी से पाँव रखता है, वह बहुत बहुत दूर तक पंहुच जाता है।”
किसी से शत्रुता का भाव रखने से पहले आप उसकी दृष्टि से चीजों को देखने की कला पैदा कर लें। निन्यानबे प्रतिशत ऐसा होता है कि वह व्यक्ति आपने को गलत नहीं समझता है। जिसके प्रति आपके मन में शत्रुता का भाव पैदा हो रहा है, उसको समझने का एक क्षण प्रयास कीजिये। यह प्रयास असाधारण और बहुत बुद्धिमान व्यक्ति ही कर सकता है। आपने को दूसरे व्यक्ति की जगह पर रखकर देखें। निष्कपट भाव से रखने का प्रयत्न कीजिये। यानी चीजों को दूसरों की दृष्टि से भी देखिये। जब आप अपने को उसकी जगह रखकर देखेंगे कि मैं उसकी जगह होता तो वही करता जो उसने किया है। विरोधाभास और आलोचना का बिंदु अपने आप विलीन हो जायेगा। जिस परिस्थिति में पैदा हुए हैं, उस परिस्थिति को देखोगे तो उनके प्रति विरोध-भाव, शत्रुता का भाव समाप्त हो जायेगा। यानी चीजों को दूसरों कि दृष्टि से भी देखिये, उसके बाद अपनी धारणा बनाइये।
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