दुनिया में धर्म के नाम पर, साधना के नाम पर, मोक्ष और परमात्मा के नाम पर ढोये जा रहे अंध-विश्वासों, सड़ी-गली रूढ़ियों, दम तोड़ती परम्पराओं एवं पाखंडों के विरुद्ध मनुष्य की नैतिक चेतना में एक बड़ी क्रांति पैदा करने का विचार मेरे प्राणों में भरा है। पुरानी धर्म परंपरा की कोई चीज आज जीवित नहीं है, सिर्फ मुर्दे खड़े हैं, जिन्हें कोई धक्का दे-दे तो वे गिर जायेंगे, किन्तु कोई भी आदमी चाहते हुए भी धक्का देने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। सभी चाहते हैं कि कोई आये, कोई पुकारे, कोई कुछ करे।
मनुष्यता के मौन आमंत्रण पर इस दिशा में कुछ करने के लिये मैं कोई नया संप्रदाय या नया संगठन या कोई नया पंथ निर्मित नहीं करना चाहता हूँ। लेकिन मनुष्य के जीवन को कुछ नए वैज्ञानिक आधार देना चाहता हूँ जिसके अनुसार दुनिया में विश्वास की जगह विवेक को धर्म के प्राण के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए लोगों में अंध-विश्वास की जगह आँखें पैदा की जा सकें। जो कहीं भी अन्धविश्वास से बंधा है वह सोच नहीं सकता है। उसका विश्वास ही उसका बंधन है, उसकी परतंत्रता है। धार्मिक होना हिन्दू और मुसलमान होने से बहुत अलग बात है। सांप्रदायिक होना धार्मिक होने में सबसे बड़ी बाधा है।
दुनिया के इतिहास में जितने बड़े पाप हुए हैं वे सब नास्तिकों के द्वारा नहीं, आस्तिकों के द्वारा किये गए हैं। नास्तिकों ने न तो कोई मंदिर जलाये हैं और न लोगों की हत्याएं की हैं। तथाकथित आस्तिकों ने ही ऐसी हत्याएं की हैं और मनुष्य को मनुष्य से लड़ाया है। ऐसे आस्तिक होने से तो बेहतर है नास्तिक ही बने रहना।
धार्मिक होने का अर्थ है जीवन में शांति, आनंद और प्रेम की साधना करना। किन्तु आज की पूरी शिक्षा व्यवस्था प्रेम पर नहीं प्रतियोगिता पर आधारित है। किताब में सिखाते हैं कि प्रेम करो, लेकिन जहाँ प्रतियोगिता है वहां प्रेम कैसे हो सकता है। अतः प्रेमपूर्ण नई मनुष्यता पैदा करनी है तो पुरानी बेवकूफी छोड़नी पड़ेगी। धर्म के नाम पर व्यर्थ के क्रियाकांडों को भी छोड़ना पड़ेगा। सच्ची धार्मिकता का नया भवन सृजित करने के लिये पुराने खँडहर को गिराने और मिटाने का साहस करना पड़ेगा।
आज के इस वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी युग में महर्षि पतंजलि, अष्टावक्र, बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर और दादू के समय का सरल चित्त मनुष्य नहीं रहा। बदली परिस्थितियों में वह बहुत जटिल हो गया है। वह सभी कार्य मस्तिष्क से ही करता है, यहाँ तक कि प्रेम भी। मनुष्य के जीवन केंद्र को मष्तिष्क से ह्रदय तक लाना ही मेरी धर्म-साधना का प्राण है।
आज मनुष्य के पास इतना समय नहीं है कि योग के यम, नियम और आसन साधने में या महावीर के बताये अंतर्त्प और बहिर्त्प के चक्कर में पूरा जीवन ख़राब करे। और यह जीवन क्या, जन्मों-जन्मों तक भी तुम इसे साध नहीं सकते। अतः मेरी धर्म साधना की सबसे बड़ी विशेषता है कि मैं तुम्हें संसार से तोड़ना नहीं चाहता हूँ, मैं तुम्हें होश पूर्वक संसार के सारे राग-रंगों से और धन-वैभव से गुजारकर उनकी व्यर्थता का बोध कराना चाहता हूँ।
और मेरे अनुभव में इस प्रक्रिया का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है ध्यान। इस जगत के सभी धर्मों में ध्यान का कोई विरोध नहीं है। सिद्धांत रूप में सभी इससे सहमत हैं। ध्यान का अर्थ है “पर” का छोड़कर “स्वयं में” स्थित हो जाना। स्वयं के छंद से ही सभी के प्रति सहज प्रेम प्रवाहित होने लगता है और परं आनंद की अनुभूति होने लगती है। स्वयं को जान लेना ही परमात्मा को जान लेना है और यही बुद्धत्व की उपलब्धि है। क्रांति के इस अमृत पथ पर एक कदम चलने का आमंत्रण देता हूँ आपको।
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