आलोचना मत कीजिये

मैं एक बात निरंतर याद दिलाता रहा हूँ कि बहुत आनंद है इस जगत में, बहुत आलोक है और बहुत सौन्दर्य भी है।  काश, हमारे पास देखने वाली आँखें होतीं और ग्रहण करने वाला ह्रदय होता।  अद्भुत सम्पदा इस धरती पर  रही है लेकिन हमारे पास ग्रहण करने वाले ह्रदय और देखने वाली आँखें नहीं हैं।  इसलिए सब इधर-उधर छिटक जाता है, हाथ कुछ नहीं  आता।  मैं तुम्हें पुकारता हूँ कि वह जो अद्भुत सम्पदा बरस रही है, कुछ तुम्हारे हाथ लग सके।  जिसके पास जीवन है उसे परमात्मा स्वतः ही मिल जाता है।  जो जीवंत है, उसे तो परमात्मा साक्षात् प्राप्त हो जाता है।  तुम जीवंत नहीं हो, जीवित होते हुए भी जीवन से वंचित हो।  मैं तुम्हें जीवंत जीवन देना चाहता हूँ, जिसमें तुम शांति आनंदरूप साक्षात् परमात्मा के प्रतिरूप हो जाओ।  परमात्मा किसी को मिलता नहीं है, किसी को दर्शन नहीं देता है।  शांति आनंदरूप परमात्मा का जिसे साक्षात्कार हुआ है, वह साक्षात् परमात्मा हो गया है।  चाहे वह बुद्ध महावीर हो, क्राइस्ट हो, इन्होंने परमात्मा का दर्शन नहीं किया।  परमात्मा के साक्षात्कार का अर्थ होता है – एक जीवंत क्षण।  महावीर साक्षात् भगवन महावीर हो गए।  इसी प्रकार कृष्ण भगवान, क्राइस्ट, मोहम्मद उस एक जीवंत क्षण में ईश्वर स्वरुप ही हो गए।  मैं तुम्हें जीवंत करना चाहता हूँ।  मैं तुम्हें किन्ही मर्यादाओं में बांधना नहीं चाहता और न ही अनुशाशन के नाम पर गुलाम बनाना चाहता हूँ।  मैं तो तुम्हें सब तरह की स्वतंत्रता देना चाहता हूँ।

जब तक तुम स्वयं को समस्त प्रकार  बंधनों से  मुक्त नहीं कर लेते हो, तब तक तुम्हारा ह्रदय-कमल खिल नहीं सकता।  जो तुम्हारे भीतर अंतर्दृष्टि है, आत्मा है, उसके खिले बिना तुम उस शांति और आनंद रुपी परमात्मा का अनुभव नहीं कर सकते हो।  तुम स्वतंत्रता से सांसें लो ताकि तुम्हारे भीतर जो सम्पदा है, वह प्रकट होकर तुम्हारे सामने आ सके और तुम उसका अनुभव करना शुरू कर सको।  तुम फैलो, उस स्वतंत्रता में तुम खिलो, खुलो और आनंद से भरो।

‘अप्प दीपो भव’। अपना दीपक स्वयं बनो और इसके लिए तुम्हारे भीतर दृष्टि होनी चाहिए।  एक आशावादी दृष्टिकोण होना चाहिए।  तुम स्वतंत्र हो सकते हो।  किन्तु जब तुम हिन्दू के बंधन से बंध जाते हो तो तुम्हारी स्वतंत्रता गयी, मुस्लमान के बंधन से बंध जाते हो तो मुसल्मानियत तो पैदा नहीं होती, लेकिन औपचारिकता स्वरुप मस्जिद जाना, रोजाना नमाज पढ़ना, यही वाह्य क्रम चलता रहता है।  जैसे हिन्दू भाई का सारा बाहर का सारा कर्मकाण्ड चलता रहता है लेकिन तुम्हारे भीतर शांति और आनंद पैदा नहीं हो पता।  जब तुम बाहर के कर्म-कांडों में उलझ जाते हो तो तुम्हें लगता है कि तुम धार्मिक हो गए हो।  टीका भी लगा रहे हो, मंदिर भी जा रहे हो, सवेरे नहा भी रहे हो।  कभी-कभी गंगाजी में भी नहाते हो।  अब क्या बच रहा है? इतने धार्मिक हैं, तब भी आनंद और शांति नहीं है।  तरह-तरह के कष्ट घेरे हुए हैं।  जब भीतर कुछ क्रांति होती है तो बाहर कुछ परिणाम होते हैं, यह स्वाभाविक है जैसे – जब महावीर को ज्ञान हुआ तो वह गोदुहा आसन में थे।  जैसे ग्वाला गाय को दुहता है तो पैरों के बल जिस प्रकार बैठता है, वह गोदुहा आसन है और महावीर उसी अवस्था में थे।  तब महावीर को परम ज्ञान हुआ।  आप गोदुहा आसन में रोज बैठते हो तो क्या आप को कैवल्य प्राप्त हो जायेगा?  मानने वाले वे सब चीज़ें भूल गये कि महावीर के भीतर क्रांति और रूपांतरण हुआ, जिससे उन्हें उस शांति व आनंद के रूप में अनंत ऊर्जा का साक्षात्कार हुआ लेकिन गोदुहा आसन में बैठने का क्रम जारी है।

ऐसे ही जितने ऋषियों-मनीषियों और बुद्धों ने शांति आनंद का अनुभव किया, परमात्मा का साक्षात्कार किया, उनके जीवन में कुछ क्रिया स्वाभाविक रूप से होती रहती थी, तो उन क्रिया-कलापों को उनके अनुयायी पकड़ लेते थे।  उन्हें ही कर्म काण्ड कहते हैं।  उनकी वास्तविक जीवन-शैली, जिसके आधार पर क्रांति हुई, उसको हम सब भूल जाते है।  इसलिए मैं कहता हूँ कि जीवन जीने की कला ऐसी हो कि तुम्हारे भीतर शांति और आनंद पैदा हो सके।  प्रथम चरण में शांति और आनंद पैदा करो।  मंदिर, मस्जिद जाना अर्थपूर्ण तभी हो सकता है जब तुम्हारे जीवन जीने की शैली में शांति और आनंद हो। तभी मंदिर के भीतर पत्थर की मूर्तियों में तुम्हें परमात्मा का बोध हो सकता है।  नहीं तो जीवन भर मंदिर, मस्जिद जाते रहो, तुम्हें शांति और आनंद रुपी परमात्मा का बोध नहीं होगा।  इन्हीं अर्थों में मैं कहता हूँ कि मंदिर मस्जिद जाना व्यर्थ है लेकिन इस का अर्थ यह नहीं है कि मैं मंदिर मस्जिद जाने के खिलाफ हूँ।  जाओ, लेकिन तैयारी के साथ जाओ, ताकि तुम्हारा जाना व्यर्थ न चला जाए।

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