अहंकार का विसर्जन
जब तुम अपने “मैं” को मिटा सको तभी संभव है कि तुम अनन्य भाव से सद्गुरु के, परमात्मा के चरणों में बैठ सकते हो। जब तक “मैं” बचता है, तब तक समर्पण नहीं होता है। लेकिन मैं तुम्हें समर्पण की जो साधना सीखना चाहता हूँ उसका प्राण सूत्र इस पर आधारित है कि तुम्हारे अहंकार के विसर्जन से बात शुरू हो। जब तुम्हारा “मैं” मिटने लगेगा तभी बीतरागता संभव है। मैं किसी तपस्या के पक्ष में कोई बात आज तक नहीं कहता हूँ। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, जंगल की तपस्या, प्राणायाम, शीर्षासन या दो चार घंटे पूजा करने की साधनाओं से मुक्त करता हूँ। समर्पण की साधना से इस विराट अस्तित्व का अंग बन जाओ। तुम्हारे किये से कुछ होता नहीं है।
करने वाला बही और कराने वाला भी वही है। उसके हाथ हजार हैं जबकि तुम तो उसके ‘हाथ’ भर हो। तुम तो बांस की पोली पोंगरी हो। जो स्वर निकाल रहा है, जो ध्वनि निकल रही है, जो संगीत निकाल रहा है वह उसी का है। लेकिन यह संभव तभी हो सकता है जब अहंकार का विसर्जन होना शुरू हो जाए। गीता, कुरान, बाइबल का सार अमृत तत्व एक ही है अहंकार का विसर्जन। अहंकार से मुक्ति ही धर्म है।
अहंकार से मुक्ति ही परमात्मा के अवतरण का द्वार है। दुनिया की सारी साधनाएं, सारी तपस्याएं अहंकार विसर्जन पर आधारित है। व्रत वही व्यक्ति रख सकता है जिसका अहंकार मजबूत हो। अहंकार कमजोर है, तो आदमी कहेगा कि चलो खा लेते हैं। लोग यही तो कहेंगे कि व्रत टूट गया। लेकिन अहंकारी चाहे कितना भी कष्ट आ जाए कहेगा कि मैं झेल लूँगा। नहीं तो लोग क्या कहेंगे? बड़ा भारी भक्त बनता था व्रत तोड़ लिया। मैंने बहुत पत्रिकाओं में खड़े बाबा के बारे में पढ़ा है। वह खड़े ही रहते हैं। खड़े होकर ही आशीर्वाद देते हैं। मल-मूत्र विसर्जन भी वहीं, खाना पीना भी वहीं। सब कुछ वहीं पर खड़े-खड़े ही करते थे। उनकी तपश्यचर्या क्या है? खड़े होने का अभ्यास। अहंकार के कारण बैठ नहीं सकते हैं। बैठ गए तो उनके अहंकार को चोट पहुंचेगी। कई जगह तो लिस्ट जारी की जाती है कि यह लगातार व्रत करने वाले मुनि महाराज हैं। अगर तपस्वी हो गये तो शोभा यात्रा, बैंड बाजा आदि की क्या जरूरत है? यह सब अहंकार के पोषण के लिए है।
पिंगबैक: अहंकार का विसर्जन | साइंस ऑफ़ डिवाइन लिविंग